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सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - सर्व गुण सम्पन्नता २०३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 वाला होता है और अल्प उपधि होने के कारण अल्प प्रतिलेखना, वाला जितेन्द्रिय विपुल तप और समिति युक्त होता है अर्थात् महातपस्वी होता है।
विवेचन - स्थविर-कल्पी मुनि की द्रव्य और भाव पूर्ण आंतरिक तथा बाह्य दशा को प्रतिरूपता कहते हैं। दूसरे शब्दों में प्रतिरूप नाम आदर्श का है। अर्थात् द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से शुद्ध जो स्थविर-कल्पी का वेष है, उसको धारण करना प्रतिरूपता है। ....
: ८. वैद्यावृत्य वेयावच्चेणं भंते! जीवे किं ज़णयह? . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! वैयावृत्य करने से जीव को क्या लाभ होता है?
वेयावच्चेणं तित्थयर-णामगोयं कम्मं णिबंधइ॥४३॥ ___ कठिन शब्दार्थ - व्यावच्चेणं - वैयावृत्य से, तित्थयरणामगोयं - तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का, णिबंधइ - बन्ध करता है।
भावार्थ - उत्तर - वैयावृत्य करने से तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का बन्ध करता है।
विवेचन - वैयावृत्य, आभ्यंतर तप है। वैयावृत्य का अर्थ है - निःस्वार्थ भाव से गुणिजनों तथा स्थविर आदि मुनियों की आहार आदि से यथोचित सेवा करना। आचार्य आदि दस की उत्कृष्ट भाव से सेवाभक्ति - वैयावृत्य करता हुआ जीव उत्कृष्ट रसायन आने पर तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन करता है।. ___ यहाँ पर 'तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म' शब्द दिया है, उसका आशय यह है कि - तीर्थंकर नाम' यह प्रकृति नामकर्म की प्रकृति होने पर भी त्रैलोक्य पूजित होने से एवं चतुर्विध संघ के मालिक रूप में तथा सर्वत्र सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति के कारण प्रशंसित और प्रसिद्धि को प्राप्त होने से इसका नाम 'तीर्थंकर नाम गोत्र' बता दिया गया है। गोत्र कर्म की यह प्रकृति नहीं है।
३. सर्वगुण सम्यकता सव्वगुणसंपण्णयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! सर्वगुणसंपन्नता - ज्ञानादि समस्त गुणों से युक्त होने से जीव को क्या लाभ होता है?
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