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उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
प्रस्तुत बोल के फल में 'अणियहि (अनिवृत्ति) शब्द दिया है। जिसका अर्थ बिना मतभेद के - 'शुक्ल ध्यान का चौथा भेद' किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि - प्राचीन समय में- चौथे भेद में 'अणियटिं' शब्द रहा था। फलित से - तीसरे भेद में - 'अप्रतिपाती'' शब्द होना स्पष्ट हो जाता है। अनिवृत्ति और अप्रतिपाती ये दोनों शब्द समान अर्थ वाले होने से बाद के समय में - एक दूसरे के स्थान पर एक दूसरे का परिवर्तन हो गया हो, ऐसी संभावना प्रतीत होती है। ..
४२. प्रतिरूपता पडिरूवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! प्रतिरूपता (द्रव्य और भाव से शुद्ध स्थविरकल्पी मुनि का वेश धारण करने) से जीव को क्या लाभ होता है? . • पडिरूवयाए णं लापवियं जणयइ, लहुभूएणं जीवे अप्पमत्ते पागडलिंगे पसत्थलिंगे विसुद्धसम्मत्ते सत्तंसमिइ-समत्ते सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे अप्पपडिलेहे जिइंदिए विउलतवसमिइसमण्णागए यावि भवइ॥४२॥
कठिन शब्दार्थ - पडिरूवयाए - प्रतिरूपता से, लाघवियं - लघुता को, लहभूएणं - लघुभूत बना हुआ, अप्पमत्ते - अप्रमत्त - प्रमाद रहित, पागडलिंगे - प्रकट लिंग (वेष) वाला, पसस्थलिंगे - प्रशस्त लिंग वाला, विसुद्धसम्मत्ते - विशुद्ध सम्यक्त्वी, सत्तसमिइसमत्तेसत्त्वसमितिसमाप्त - सत्त्व और समिति से परिपूर्ण, सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु - समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्वों के लिए, वीससणिज्जरूवे - विश्वसनीय रूप वाला, अप्पपडिलेहे - अल्प प्रतिलेखन वाला, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, विउलतवसमिइसमण्णागए - विपुल तप एवं समिति से समन्वित।
भावार्थ - उत्तर - प्रतिरूपता से लघुता (हल्कापन) को प्राप्त होता है। लघुभूत बना हुआ जीव प्रमाद रहित होता है तथा प्रकट लिंग (मुनिवेशादि) और प्रशस्त लिंग (जीव रक्षा के निमित्त मुखवस्त्रिका, रजोहरणादि वाला) हो कर विशुद्ध सम्यक्त्वी होता है तथा सत्त्वसमिति समाप्त - सत्त्व-धैर्य समिति वाला हो कर सभी प्राणी-भूत-जीव-सत्त्वों का विश्वसनीय रूप
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