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उत्तराध्ययन सूत्र - अट्ठाईसवाँ अध्ययन
१. सामायिक चारित्र सम अर्थात् राग-द्वेष रहित आत्मा के प्रतिक्षण अपूर्व - अपूर्व निर्जरा से होने वाली आत्मविशुद्धि का प्राप्त होना, सामायिक है।
भवाटवी के भ्रमण से पैदा होने वाले क्लेश को प्रतिक्षण नाश करने वाली, चिन्तामणि, कामधेनु एवं कल्पवृक्ष के सुखों का भी तिरस्कार करने वाली, निरुपम सुख देने वाली ऐसी ज्ञान, दर्शन, चारित्र पर्यायों को प्राप्त कराने वाले, राग-द्वेष रहित आत्मा के क्रियानुष्ठान को सामायिक चारित्र कहते हैं।
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सर्व सावध व्यापार का त्याग करना एवं निरवद्य व्यापार का सेवन करना, सामायिक चारित्र है।
यों तो चारित्र के सभी भेद सावद्य योग विरतिरूप हैं। इसलिए सामान्यतः सामायिक ही हैं । किन्तु चारित्र के दूसरे भेदों के साथ छेद आदि विशेषण होने से नाम और अर्थ से भिन्नभिन्न बताये गये हैं। छेद आदि विशेषणों के न होने से पहले चारित्र का नाम सामान्य रूप से सामायिक ही दिया गया है।
सामायिक के दो भेद - इत्वरकालिक सामायिक और यावत्कथिक सामायिक |
इत्वस्कालिक सामायिक - इत्वरकाल का अर्थ है अल्प काल अर्थात् भविष्य में दूसरी बार फिर सामायिक व्रत का व्यपदेश होने से जो अल्पकाल की सामायिक हो, उसे इत्वरकालिक सामायिक कहते हैं। पहले एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान् के तीर्थ में जब तक शिष्य में महाव्रत का आरोपण नहीं किया जाता, तब तक उस शिष्य के इत्वरकालिक सामायिक समझनी चाहिए ।
यावत्कथिक सामायिक - यावज्जीवन की सामायिक यावत्कथिक सामायिक कहलाती है। प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान् के सिवा शेष बाईस तीर्थंकर भगवान् एवं महाविदेह क्षेत्र तीर्थंकरों के साधुओं के यावत्कथिक सामायिक होती है। क्योंकि इन तीर्थंकरों के शिष्यों को दूसरी बार सामायिक व्रत नहीं दिया जाता ।
२. छेदोपस्थापनीय चारित्र - जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद एवं महाव्रतों में उपस्थापन - आरोपण होता है, उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं । अथवा -
पूर्व पर्याय का छेद करके जो महाव्रत दिये जाते हैं, उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं । यह चारित्र भरत, ऐरावत क्षेत्र के प्रथम एवं चरम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है, शेष तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता ।
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