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सामाचारी - प्रतिलेखना की प्रशस्तता और अप्रशस्तता
७. प्रतिलेखना करते समय यदि शंका उत्पन्न हो जाय तो अंगुलियों पर गिनने लगना और उससे उपयोग का चूक जाना तथा ध्यान अन्यत्र चला जाना । ये सब अप्रशस्त प्रतिलेखनाएँ हैं । मुनि को इनका त्याग करके शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्रतिलेखना करना चाहिए ।
प्रतिलेखना की प्रशस्तता और अप्रशस्तता
अणूणाइरित्त - पडिलेहा, अविवच्चासा तहेव य ।
पढमं पयं पसत्थं, सेसाणि उ अप्पसत्थाई ॥ २८ ॥
कठिन शब्दार्थ - अणूणाइरित्त - न्यून या अधिक, अविवच्चासा - विधि में विपर्यास रहित, पढमं पयं प्रथम पद, पसत्थं - प्रशस्त, सेसाणि शेष, अप्पसत्थाइं अप्रशस्त । भावार्थ प्रतिलेखना के विषय में शास्त्रोक्त विधि से कम न करना, अधिक भी न
अप्रशस्त हैं।
करना और विपरीत न करना, यह पहला भंग प्रशस्त (शुद्ध) है और शेष भांगे विवेचन - प्रतिलेखना के त्रिसंयोगी आठ भंग इस प्रकार हैं -
शुद्ध / अशुद्ध
शुद्ध
अशुद्ध
अशुद्ध
अशुद्ध
अशुद्ध
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
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5.
अनतिरिक्त
अनतिरिक्त
अनतिरिक्त
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भंग अन्यून
अन्यून
अन्यून
न्यून
न्यून
अन्यून
अतिरिक्त
न्यून
अनतिरिक्त
अन्यून
अतिरिक्त
न्यून
अतिरिक्त
विपर्यास
इन आठ भंगों में - शास्त्रोक्त विधि से न कम, न अधिक और न विपरीत, यह प्रथम भंग शुद्ध और प्रशस्त है। शेष सात भंग अशुद्ध और अप्रशस्त हैं। साधु-साध्वी को प्रथम भंग के अनुसार ही प्रतिलेखना करनी चाहिए। शेष ७ अशुद्ध भंगों को त्याग देना चाहिये ।
प्रतिलेखना से विराधक और आराधक
अविपर्यास
अविपर्यास
विपर्यास
अविपर्यास
अविपर्यास
अतिरिक्त
अनतिरिक्त
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विपर्यास
विपर्यास
अविपर्यास
पडिलेहणं कुणतो, मिहो कहं कुणइ जणवय - कहं वा । देइ व पच्चक्खाणं, वाएइ सयं पडिच्छइ वा ॥ २६ ॥
अशुद्ध
अशुद्ध
अशुद्ध
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प्रशस्त / अप्रशस्त
प्रशस्त
अप्रशस्त
अप्रशस्त
अप्रशस्त
अप्रशस्त
अप्रशस्त
अप्रशस्त
अप्रशस्त
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