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यज्ञीय - वेद और यज्ञ आत्मरक्षक नहीं 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
जहित्ता पुव्वसंजोगं, णाइसंगे य बंधवे। जो ण सजइ भोगेसु, तं वयं बूम माहणं॥२६॥
कठिन शब्दार्थ - जहित्ता - छोड़ कर, पुव्वसंजोगं - पूर्व संयोग को, णाइसंगे - ज्ञातिजनों के संबंधों को, बंधवे - बंधुओं का, ण सजइ - आसक्त नहीं होता, भोगेसु -
भोगों में।
भावार्थ - पूर्वसंयोग (माता-पितादि के संयोग) को और सास-ससुर आदि ज्ञाति-सम्बन्धीजनों के संयोग को तथा बन्धुओं को छोड़ कर जो कामभोगों में आसक्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
विवेचन - उपरोक्त ११ गाथाओं (क्रं. १६ से २६ तक) में जैन धर्मानुसार माहण-ब्राह्मण के यथार्थ लक्षण बताये गये हैं। जो इस प्रकार हैं - १. जो लोक में अग्नि के समान पूज्य हो २. जो स्वजनादि के आगमन एवं गमन पर हर्ष या शोक से ग्रस्त नहीं होता ३. अर्हत्-वचनों में रमण करता हो ४. स्वर्णसम विशुद्ध हो ५. राग द्वेष एवं भय से मुक्त हो ६. तपस्वी, कृश, दान्त, सुव्रत एवं शान्त हो ७. तप से जिसका रक्त-मांस कम हो गया हो ८. जो मन, वचन, काया से किसी जीव की हिंसा नहीं करता ६. जो क्रोधादि वश असत्य नहीं बोलता १०. जो किसी प्रकार की चोरी नहीं करता ११. जो मन, वचन, काया से किसी प्रकार का मैथुन सेवन नहीं करता १२. जो कामभोगों से अलिप्त रहता है १३. जो अनगार, अकिंचन, गृहस्थों में अनासक्त, मुधाजीवी एवं रसों में अलोलुप है और १४. जो पूर्व संयोगों, ज्ञातिजनों और बान्धवों का त्याग करके फिर उनमें आसक्त नहीं होता।
. वेद और यज्ञ आत्मरक्षक नहीं पसुबंधा सव्ववेया, जटुं च पावकम्मुणा। णं तं तायंति दुस्सीलं, कम्माणि बलवंति हि॥३०॥
कठिन शब्दार्थ - पसुबंधा - पशुवध के हेतु, सव्ववेया - सभी वेद, पावकम्मुणा - पाप कर्मों से, ज8 - यज्ञ, ण तायंति - बचा नहीं सकते, दुस्सीलं - दुःशील को, कम्माणिकर्म, बलवंति - बलवान् हैं।
भावार्थ - पशुवध का विधान करने वाले सभी वेद और पाप-कर्मकारी यज्ञ उस दुःशील
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