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________________ असंस्कृत - धन, रक्षक नहीं है . ६६ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ भावार्थ - संसार में प्राप्त हुआ जीव दूसरे के लिये और अपने लिए जो साधारण कर्म करता है, उस कर्म के फलभोग के समय निश्चय ही वे बंधु आदि बंधुता का पालन नहीं करते हैं, अर्थात् फल भोगने के समय दुःख में हिस्सा नहीं बंटाते, यह जीव अपने किये हुए कर्मों को अकेला ही भोगता है। विवेचन - प्रस्तुत गाथा में आगमकार कहते हैं कि हे जीव! अपने किए हुए शुभाशुभ कर्मों का उत्तरदायित्व तेरे ही ऊपर है। तेरे बिना और कोई भी तेरे किये हुए अशुभ कर्म से उत्पन्न होने वाले दुःख का विभाग नहीं कर सकता, अतः तू धर्म मार्ग के अनुसरण में कभी प्रमाद मत कर। - धन, रक्षक नहीं है वित्तेण ताणं ण लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्था। दीवप्पणढे व अणंतमोहे, णेयाउयं दट्ठमदट्ठमेव॥५॥ कठिन शब्दार्थ - वित्तेण - धन से, ताणं - त्राण (रक्षा), ण लभे - प्राप्त नहीं कर सकता, पमत्ते - प्रमादी, इमम्मि - इस, लोए - लोक में, अदुवा - अथवा, परत्था - परलोक में, दीवप्पणढेव - बुझे हुए दीपक के समान, अणंतमोहे - अनंत मोह वाला जीव, णेयाउयं - न्याय युक्त मार्ग को, दटुं - देख कर, अदट्टमेव - नहीं देखता है। .. भावार्थ - प्रमादी पुरुष इस लोक में अथवा परलोक में धन से शरण नहीं पाता है। जिसका दीपक बुझ गया है ऐसे व्यक्ति के समान अनन्त मोह वाला प्राणी न्याय युक्त सम्यग्दर्शनादि रूप मुक्ति मार्ग को देखकर भी, न देखने वाला ही रहता है। . विवेचन - भगवान् फरमाते हैं कि इस लोक और परलोक दोनों में ही कर्म जन्य दुःख की निवृत्ति में धन से किसी प्रकार की भी सहायता नहीं मिल सकती। - जैसे दीपक ले कर गुफा में गया हुआ व्यक्ति दीपक के प्रकाश में वहाँ रही हुई सभी वस्तुएं देखता है, किन्तु प्रमादवश दीपक बुझ जाने पर उसका वस्तुओं का देखना और न देखना एक-सा हो जाता है। इसी प्रकार कर्मों का क्षयोपशम होने पर श्रुतज्ञान रूप भाव दीपक के प्रकाश में आत्मा मोक्षमार्ग का दर्शन करता है, किन्तु धन आदि में आसक्ति के कारण वह पुनः कर्मों से आवृत्त हो जाता है, फलतः उसका मुक्तिमार्ग का दर्शन करना भी, न करने के समान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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