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________________ असंस्कृत - किये हुए कर्मों का परिणाम निश्चित ६७ कई भोले प्राणी कहते हैं कि वृद्धावस्था में धर्माचरण करेंगे, अभी तो मौज मस्ती के दिन हैं परन्तु यह याद रखना चाहिये कि युवावस्था में जिन पुत्रादि के लिए आत्म-समर्पण किया जाता है वे ही वृद्धावस्था आने पर तिरस्कार करने लग जाते हैं। अतः वृद्धावस्था में धर्मानुष्ठान की आशा करना व्यर्थ है। वृद्धावस्था में कोई भी रक्षक और सहायक नहीं होगा, यह जान कर धर्म के आचरण में जितनी शीघ्रता हो सके उतनी श्रेष्ठ है। वैरानुबद्धता का परिणाम जे पावकम्मेहिं धणं मणुस्सा, समाययंति अमइं० गहाय। पहाय ते पास-पयट्टिए णरे, वेराणुबद्धा णरयं उवेंति॥२॥ कठिन शब्दार्थ - पावकम्मेहिं - पाप कर्मों से, धणं - धन को, समाययंति - उपार्जित (एकत्र) करते हैं, अमई (अमयं) - कुमति - कुबुद्धि को, अमृत के समान समझ कर, गहाय - ग्रहण करके, पहाय - छोड़ कर, पास - विषय रूप पाश में, पयट्टिए - प्रवृत्त हुए, वेराणुबद्धा - वैरानुबंध - वैर से बंधे हुए, णरयं - नरक में, उति - उत्पन्न होते हैं। . भावार्थ - कुबुद्धि एवं अज्ञान के वश होकर जो मनुष्य पाप कर्मों से धन को अमृत के समान समझ कर ग्रहण कर के संचय करते हैं, स्त्री पुत्र आदि के पाश में फंसे हुए और वैरभाव की श्रृंखला में जकड़े हुए वे मनुष्य अन्त समय में धन को यहीं छोड़ कर नरक को प्राप्त करते हैं। उस समय वह धन उनको शरण रूप नहीं होता। विवेचन - इस गाथा में पाप कर्मों के द्वारा एकत्रित किये गये धन के परिणाम विशेष का वर्णन किया गया है। किये हुए कर्मों का परिणाम निश्चित तेणे जहां संधिमुहे गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए, कडाण कम्माण ण मुक्ख अत्थि॥ ३॥ कठिन शब्दार्थ - तेणे - चोर, संधिमुहे - संधिमुख पर, गहीए - गृहीतः - पकड़ा हुआ, सकम्मुणा - अपने कर्मों से, किच्चइ - कष्ट पाता है, पावकारी - पाप कर्म करने पाठान्तर - अमयं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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