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उत्तराध्ययन सूत्र - द्वितीय अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
भावार्थ - 'उपधान तप आदि अंगीकार करके, साधु की प्रतिमा को स्वीकार करते हुए इस प्रकार उत्कृष्ट चर्या से विचरते हुए भी मेरा छद्मस्थपन दूर नहीं होता है', इस प्रकार विचार कर साधु को खेद नहीं करना चाहिए, किन्तु अज्ञान को दूर करने के लिए शास्त्रविहित क्रियाओं में उत्साहपूर्वक विशेष रत रहना चाहिए।
विवेचन - यहाँ अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं किन्तु अल्पज्ञान या मिथ्याज्ञान है। यह परीषह अज्ञान के सद्भाव और अभाव - दोनों प्रकार से होता है। अज्ञान के रहते साधक में दैन्य, अश्रद्धा, भ्रांति आदि पैदा होती है।
___ अज्ञान परीषह का अर्थ इस प्रकार होना चाहिये - अनेक प्रकार के तप आदि को करते हुए भी छद्यस्थता के नहीं हटने से, अवधि आदि विशिष्ट ज्ञानों के नहीं होने से तथा धर्म का पूर्ण स्वरूप समझ में नहीं आने से होने वाला आर्तध्यान (दुःख) को अज्ञान परीषह कहते हैं। प्रज्ञा परीषह के समान यह परीषह भी ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है।
२१ दर्शन परीषह णत्थि णूणं परे लोए, इट्टी वावि तवस्सिणो। अदुवा वंचिओ मि त्ति, इइ भिक्खू ण चिंतए॥४४॥'
कठिन शब्दार्थ - परे लोए - पर लोक, इट्टी - ऋद्धि, तवस्सिणो - तपस्वी की, वंचिओमि - मैं ठगा गया हूँ, ण चिंतए - चिंतन न करे। .
भावार्थ - 'निश्चय ही परलोक-जन्मान्तर अथवा तपस्वी की ऋद्धि नहीं है इसलिए साधुपन ले कर मैं ठगा गया हूँ' इस प्रकार साधु विचार नहीं करे।
अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवा वि भविस्सइ। मुसं ते एवमाहंसु, इइ भिक्खू ण चिंतए॥४५॥
कठिन शब्दार्थ - अभू - भूतकाल में, जिणा - जिन - राग द्वेष को जीतने वाले, अत्थि - है, भविस्सइ - भविष्य में होंगे, मुसं - झूठ, आहंसु - कहा है।
भावार्थ - 'राग-द्वेष को जीतने वाले सर्वज्ञ जिन देव भूतकाल में हुए हैं, वर्तमान काल में महाविदेह क्षेत्र में सर्वज्ञ जिन-देव है अथवा भविष्य में होंगे', इस प्रकार उन सर्वज्ञ जिन देवों का अस्तित्व बताने वाले लोगों ने झूठ कहा है, अथवा भूत-भविष्यत्-वर्तमान काल के जिन देवों ने स्वर्ग आदि परलोक बतलाया है, वह झूठ कहा है - इस प्रकार साधु विचार नहीं करे।
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