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परीषह - परीषहों का स्वरूप - अज्ञान परीषह MarwadMARAMMARRAMMARRANAMAARAM
भावार्थ - इसके बाद ज्ञान का अभिमान करने से किये हुए अज्ञान फल देने वाले कर्म उदय में आवेंगे, इस प्रकार कर्म-विपाक को जान कर अपनी आत्मा को आश्वासन देना चाहिए अर्थात् ज्ञान का गर्व नहीं करना चाहिये।
कर्म अपने अबाधा काल के बाद फल देते हैं, तदनुसार पहले बांधे हुए अज्ञान-फल वाले ये ज्ञानावरणीय कर्म उसी समय फल न दे कर अभी उदय में आ रहे हैं। अतएव अज्ञान के लिए शोक न कर के अज्ञान-फल वाले कर्मों को क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिये।
विवेचन - प्रज्ञा परीषह का अर्थ इस प्रकार होना चाहिए - 'बुद्धि की मंदता से होने वाला कष्ट अर्थात् ज्ञान के नहीं चढ़ने से बुद्धि की स्फुरणा नहीं होने से तथा पूछे गये प्रश्न का उत्तर नहीं आने से होने वाला आर्तध्यान (दुःख)। प्रज्ञा परीषह को ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होना बताया है। गर्व करना मोहनीय कर्म के उदय से संबंधित होने से यहाँ नहीं होना चाहिये।
. २१. अज्ञान परीवह णिरट्ठगम्मि विरओ, मेहुणाओ सुसंवुडो। ... जो सक्खं णाभिजाणामि, धम्मं कल्लाणं-पावगं॥४२॥
कठिन शब्दार्थ - णिरट्टगम्मि - व्यर्थ ही, विरओ - विरत हुआ, मेहुणाओ - मैथुन से, सुसंवुडो - सुसंवृत - मन और इन्द्रियों का संवरण, सक्खं - प्रत्यक्ष, कल्लाणं - . कल्याणकारी, पावगं - पापकारी। ____ भावार्थ - 'जो मैं अभी तक साक्षात् स्पष्ट रूप से कल्याणकारी धर्म के स्वरूप को और पाप के स्वरूप को भी नहीं जान सका हूँ तो फिर मेरा मैथुन आदि से निवृत्त होना और सम्यक् प्रकार से आस्रवों का निरोध करना व्यर्थ ही है' - इस प्रकार साधु कभी विचार नहीं करे, किन्तु ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करने का प्रयत्न करे। .
तवोवहाण-मादाय, पडिमं पडिवज्जओ। एवं वि विहरओ मे, छउमं ण णियहइ॥४३॥
कठिन शब्दार्थ - तवोवहाणं - उपधान तप - आगमों का विधिवत् अध्ययन करते समय परम्परागत विधि के अनुसार प्रत्येक आगम के लिए निश्चित आयंबिल आदि तप करने का विधान, आदाय - अंगीकार करके, पडिमं - प्रतिमा को, पडिवजओ - धारण करता हुआ, विहरओ - विचरते हुए भी, छउमं - छद्मस्थपन, ण णियदृइ - दूर नहीं होता है।
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