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- परीषह - परीषहों का स्वरूप - स्त्री परीषह
८. स्त्री परीवह संगो एस मणुस्साणं, जाओ लोगम्मि इथिओ। जस्स एया परिणाया, सुकडं तस्स सामण्णं॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - संगो - संग - आसक्ति (बंधन) रूप, मणुस्साणं - मनुष्यों के लिए, लोगम्मि - लोक में, इथिओ - स्त्रियाँ, परिणाया - परिज्ञा से, सुकडं - सुकृतसफल, सामण्णं - श्रामण्य - साधुत्व। .
भावार्थ - लोक में जो स्त्रियाँ हैं, वे मनुष्यों के लिए संग रूप-आसक्ति का कारण है, इन स्त्रियों को जिस साधु ने ज्ञपरिज्ञा से त्याज्य समझ कर प्रत्याख्यान परिज्ञा में छोड़ दिया है, उस साधु का साधुत्व सफल है।
विवेचन - जिस मुमुक्षु पुरुष ने सोच समझ कर स्त्रियों के अनर्थकारी संसर्ग का पूर्ण रूप से परित्याग कर दिया है उसी का संयम सुंदर और निर्मल है।
एवमादाय मेहावी, पंकभूयाओ इथिओ। - णो ताहि विणिहण्णिज्जा, चरेजऽत्तगवेसए॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - एवं - इस प्रकार, आदाय - भलीभांति जान कर, पंकभूयाओ - पंक-कीचड़ स्वरूप, णो विणिहणिजा - हनन न होवे - विनिघात न होने दे, अत्तगवेसए - आत्म-गवेषक होकर। .
भावार्थ - इस प्रकार स्त्रियों के संग को कीचड़ रूप मान कर बुद्धिमान् साधु उनमें फंसे नहीं तथा आत्म-गवेषक हो कर संयम मार्ग में ही विचरे। ___विवेचन - जैसे कीचड़ में फंस जाने वाला पुरुष कभी सूखा नहीं निकल सकता, उसी प्रकार स्त्री रूप कीचड़ के संसर्ग में आने वाले संयमी साधु के संयम व्रत में भी किसी न किसी प्रकार के दोष लगने की अवश्य संभावना है। अतः साधु स्त्री-संसर्ग से अपने आपको दूर रखे।
प्रस्तुत गाथा में आत्म-गवेषक पद दिया है, उसका आशय यह है कि पूर्णतया ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किये बिना आत्मा की गवेषणा नहीं हो सकती अतः मोक्ष पथगामी साधु के लिए यही उचित है कि स्त्रियों को कीचड़ के समान फंसाने वाली और मोक्ष मार्ग में विघ्न रूप समझ कर इनके संसर्ग को सर्वथा त्याग दे और अपने संयमव्रत की आराधना में ही दृढ़तापूर्वक विचरण करे।
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