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उत्तराध्ययन सूत्र - द्वितीय अध्ययन
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. ७ अरतिपरीवह गामाणुगामं रीयंतं, अणगारमकिंचणं। . अरई अणुप्पविसेजा, तं तितिक्खे परीसहं॥१४॥
कठिन शब्दार्थ - गामाणुगामं - ग्रामानुग्राम, रीयंतं - विचरते हुए, अकिंचणं - अकिंचन - परिग्रह रहित, अरई - अरति - संयम के प्रति अरुचि, अणुप्पविसेजा - प्रविष्ट (उत्पन्न) हो जाए, तितिक्खे - समभाव से सहन करे।
भावार्थ - ग्रामानुग्राम विहार करते हुए गृहत्यागी परिग्रह-रहित साधु के मन में यदि कभी अरति (संयम में अरुचि) उत्पन्न हो तो उस अरति परीषह को सहन करे और संयम में अरुचि नहीं लावें।
विवेचन - किसी ग्राम के मार्ग में जाते हुए उसी मार्ग में यदि कोई और ग्राम आ जावे तो उसे 'अनुग्राम' कहते हैं।
अरई पिट्ठओ किच्चा, विरए आयरक्खिए। धम्मारामे णिरारंभे, उवसंते मुणी चरे॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - पिट्ठओ - पीठ, किच्चा - करके, विरए - विरत-हिंसादि से विरत, आयरक्खिए - आत्म रक्षक, धम्मारामे - धर्म में रमण करने वाला, णिरारंभे - निरारंभआरम्भ से रहित, उवसंते - उपशांत। ___ भावार्थ - हिंसादि से निवृत्त, दुर्गति से आत्मा की रक्षा करने वाला, आरंभ त्यागी, क्रोध आदि कषायों को शान्त करने वाला साधु, संयम विषयक अरति का तिरस्कार कर के धर्मरूपी उद्यान में विचरे।
विवेचन - साधु पुरुष को पतन की ओर ले जाने वाले जितने दोष हैं उन सब का मूल कारण आरम्भ समारम्भ हैं। अतः त्यागी साधु को आरम्भ समारंभ से सदैव दूर रहना चाहिये तभी वह धर्म रूपी वाटिका में रमण कर सकता है।
चिंता युक्त मनुष्य को कभी-कभी कामवासना के जागने की भी संभावना हो सकती है अतः अब आठवां स्त्री परीषह कहा जाता है।
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