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________________ परीषह - परीषहों का स्वरूप - शीत परीषह ★xkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkrit भावार्थ - क्षुधा परीषह के बाद तृषा परीषह का वर्णन किया जाता है, अनाचार सेवन से घृणा करने वाला लज्जा और संयम वाला साधु, प्यास से पीड़ित होने पर सचित्त पानी का सेवन न करे, किन्तु अग्नि आदि के संयोग से प्रासुक बने हुए पानी की एषणा के लिए विचरे। विवेचन - क्षुधा के बाद अब तृषा परीषह का वर्णन किया जाता है। अत्यंत बढ़ी हुई तृषा की शांति के निमित्त साधु को अविकृत - सचित्त (सजीव) जल के ग्रहण का सर्वथा निषेध है इसलिए विकृत - शस्त्रादि से अथवा अग्नि आदि के स्पर्श से विकृति को प्राप्त होकर जो जल पूर्णतया अचित्त-निर्जीव हो गया है उससे ही साधु उस तृषा को शांत करने का प्रयत्न करे। छिण्णावाएसु पंथेसु, आउरे सुपिवासिए। परिसुक्कमुहेऽदीणे, तं तितिक्खे परीसहं॥५॥ कठिन शब्दार्थ - छिण्णावाएसु - आवागमन से शून्य, पंथेसु - मार्गों में, आउरे - आतुर, सुपिवासिए - सुपिपासित - तीव्र प्यास से, परिसुक्क मुहे - सूखा हुआ मुख, अदीणे - अदीन-दीनता रहित, तितिक्खे - सहन करे। भावार्थ - जहाँ लोगों का आना-जाना नहीं है ऐसे निर्जन मार्ग में जाता हुआ साधु प्यास · से अतिव्याकुल हो जाय तथा मुँह सूख जाय फिर भी वह दीनता रहित होकर उस प्यास के परीषह को सहन करे, किन्तु साधु-मर्यादा का उल्लंघन कर के सचित्त पानी का सेवन नहीं करे। विवेचन - दोपहर के समय अत्यंत धूप पड़ने के कारण जिन मार्गों में लोगों का आवागमन रुक गया हो और विहार करता हुआ साधु यदि उन मार्गों में चला जाय एवं वहाँ पर अत्यंत तृषा लगने के कारण उसका मुख सूखने लगे और चित्त व्याकुल हो जाय तो ऐसी दशा में भी संयमशील साधु सचित्त जल का सेवन न करे किन्तु तृषा के इस परीषह को अदीनता पूर्वक समभाव से सहन करे। भूख और प्यास के कारण जिस साधु का शरीर अति कृश हो गया उसको शीत की बाधा विशेष रूप से उत्पन्न हो जाती है अतः आगमकार अब तीसरे शीत परीषह का वर्णन करते हैं। ३. शीत परीवह चरंतं विरयं लूहं, सीयं फुसइ एगया। णाइवेलं मुणी गच्छे, सुच्चाणं जिणसासणं॥६॥ कठिन शब्दार्थ - चरंतं - विचरते हुए, विरयं - विरत - हिसादि से निवृत्त, लूहं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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