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________________ उत्तराध्ययन सूत्र - द्वितीय अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ dattatruddakadkakkkkkkkkkk प्रस्तुत गाथा में वृक्षों के कच्चे अथवा पक्के फलों को स्वयं तोडने या दूसरों से तुड़वाने तथा उनके छेदन करने और दूसरों से करवाने एवं टूटे हुए उन सचित्त फलों तथा अन्य खाद्य पदार्थों को स्वयं पकाने या दूसरों से पकवाने का साधु के लिए स्पष्ट निषेध किया है अर्थात् साधु अपनी तीव्र क्षुधा को शांत करने के लिए आधाकर्मी आदि दोषों से दूषित आहार को प्राप्त करने का पापमय प्रयत्न कदापि न करे।। काली पव्वगं संकासे, किसे धमणिसंतए। मायण्णे असण-पाणस्स अदीणमणसो चरे॥३॥ कठिन शब्दार्थ - काली पव्वंग - काक जंघा के, संकासे - समान, किसे - कृश, धमणिसंतए - धमनियों का जाल, मायण्णे - मात्रज्ञ - मात्रा जानने वाला, असणपाणगस्सआहार पानी की, अदीणमणसो - दीनता रहित मन वाला होकर, चरे - विचरण करे। भावार्थ - क्षुधा परीषह से सूख कर शरीर चाहे काकजंघा के समान दुर्बल हो जाय, नसें दिखने लग जाय, शरीर अत्यन्त कृश एवं दुर्बल हो जाय तो भी आहार पानी की मर्यादा को जानने वाला साधु मन में दीनता के भाव न लाता हुआ दृढ़ता के साथ संयम मार्ग में विचरे। विवेचन - तपोनुष्ठान से जिसका शरीर अत्यंत कृक्ष हो गया है ऐसा अस्थिपंजरमय नितान्त कृश शरीर वाला साधु अदीन होकर बड़ी दृढ़ता से संयम मार्ग में विचरण करे अर्थात् उसे साधु के ग्रहण करने योग्य शुद्ध आहार - भिक्षा न मिले तो वह उसके लिए किसी प्रकार की दीनता सूचक लालसा को प्रकट न करे किन्तु क्षुधा के उस असहनीय कष्ट को भी समभाव से सहन कर लेवे और यदि उसको प्रासुक एषणीय आहार कहीं से मिल जाय तो उसकी सरसता में वह अपने आप को मूर्च्छित न करे तथा प्रमाण से अधिक भोजन करने की इच्छा भी न करे। २.वृषा (पिपासा) परीषह तओ पुट्ठो पिवासाए, दुगुंछी लजसंजए। सीओदगं ण सेवेजा, वियडस्सेसणं चरे॥४॥ कठिन शब्दार्थ - पुट्ठो - स्पर्शित हुआ, पिवासाए - पिपासा - प्यास से, दुगुंछी - घृणा करने वाला, लज्जसंजए - लज्जावान् साधु, सीओदगं - शीतोदक - सचित्त जल का, ण सेवेजा - सेवन न करे, वियडस्सेसणं - विकृत - प्रासुक अचित्त जल की एषणा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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