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• विनयश्रुत - विनयाचार । ************************************************************** सी बात नहीं है। इसके समान दुःसाध्य कार्य लोक में दूसरा कोई नहीं है। वे महापुरुष धन्य हैं जिन्होंने अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में कर रखा है। हजारों में कोई विरला व्यक्ति ही आत्मदमन करने वाला होता है अतः विनीत शिष्य को सर्वतोभावेन आत्मदमन की ओर ही प्रवृत्त होना चाहिए इसी में उसका कल्याण निहित है। .
आत्मदमन का उपाय .. वरं मे अप्पा दंतो, संजमेण तवेण य। माऽहं परेहिं दम्मंतो, बंधणेहि वहेहि य॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - वरं - अच्छा है, मे - मुझे, संजमेण - संयम से, तवेण - तप से, अहं - मेरा, परेहिं - दूसरे के द्वारा, दम्मंतो - दमन किया जाना, बंधणेहि - बन्धनों से, वहेहि - वध से। .
भावार्थ - परवश हो कर दूसरों से वध और बन्धनों से दमन किये जाने की अपेक्षा मुझे अपनी इच्छा से ही तप और संयम से अपनी आत्मा का दमन करना श्रेष्ठ है।
विवेचन - द्वादशविध तप और पंचविध आस्रव निरोध रूप संयम के अनुष्ठान से जो आत्म-निग्रह किया गया है, वही सच्चा आत्मदमन है और इसी से आध्यात्मिक शांति की प्राप्ति हो सकती है।
विनयाचार पडिणीयं च बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मणा। आवी वा जइ वा रहस्से, णेव कुज्जा कयाइ वि॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - पडिणीयं - प्रतिकूल आचरण, बुद्धाणं - गुरुओं - आचार्यों के, वाया - वचन (वाणी) से, अदुव - अथवा, कम्मुणा - कर्म से, आवी - प्रकट में, वा - अथवा, रहस्से - एकांत में, णेव - नहीं, कुजा - करे, कयाइ वि - कभी भी (कदाचित् भी)।
. भावार्थ - विनीत शिष्य को चाहिए कि वह प्रकट में - लोगों के सामने अथवा एकान्त में, वचन से और कार्य से, कभी भी गुरु महाराज के विपरीत आचरण नहीं करे।
विवेचन - योग्य शिष्य को चाहिए कि वह अपने आचार्यों - गुरुजनों की लोगों के सामने अथवा परोक्ष में भी मन, वचन और काया से आशातना - अविनय नहीं करे। आचार्यों
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