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उत्तराध्ययन सूत्र - पहला अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
कठिन शब्दार्थ - ण - नहीं, अपुट्ठो - पूछे बिना, वागरे - बोले, किंचि - कुछ भी, पुट्ठो - पूछने पर, अलीयं - अलीक - असत्य, वए - बोले, कोहं - क्रोध को, असच्चं - असत्य - निष्फल, कुव्वेजा - कर दे, धारेजा - धारण करे, पियं - प्रिय वचन को, अप्पियं - अप्रिय वचन को।
भावार्थ - विनीय शिष्य बिना पूछे कुछ भी न बोले और पूछने पर असत्य न बोले। यदि कभी क्रोध उत्पन्न हो जाय, तो उसका अशुभ फल सोच कर उसे असत्य अर्थात् निष्फल कर देवे तथा अप्रिय लगने वाले गुरु के कठोर वचन को भी हितकारी जान कर प्रिय-समझे एवं धारण करे।
विवेचन - इस गाथा में शिष्य के लिए यह शिक्षा दी गई है कि वह बिना बोलाये थोड़ासा भी न बोले और यदि किसी बात पर उसे बोलाया जाय तो वह असत्य कभी न बोले। गुरुजनों के किसी तिरस्कार युक्त वचन को सुन कर वह अपने मन में क्रोध न लावे। यदि किसी कारणवशात् क्रोध आ भी जाय तो क्रोध के कटु फल का विचार करते हुए उसे निष्फल बना दे तथा गुरुजनों के प्रिय तथा अप्रिय बर्ताव में किसी प्रकार का अन्तर न समझता हुआ अपने लिए दोनों को ही परम हितकर समझे, यही उसकी विनयशीलता की सच्ची कसौटी है।
. आत्मदमन और उसका फल अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा ह खल दुद्दमो। अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य॥१५॥
कठिन शब्दार्थ - अप्पा - आत्मा का, चेव - निश्चय ही, दमेयव्वो - दमन करना चाहिए, खलु - निश्चय से, दुद्दमो - दुर्दम्य, दंतो - दान्त - दमन किया हुआ, सुही - सुखी, होइ - होता है, अस्सिं - इस, लोए - लोक में, य - और, परत्थ - परलोक में।
भावार्थ - आत्मा अर्थात् मन और इन्द्रियों का ही दमन करना चाहिए, क्योंकि आत्मा का दमन करना बड़ा कठिन है। आत्मा को दमन करने वाला इस लोक में और परलोक में सुखी होता है।
विवेचन - मन और इन्द्रियों को वश में लाने का प्रयत्न करना ही आत्मदमन है। इसी को दूसरे शब्दों में आत्म-स्वाधीनता कहते हैं। आत्मदमन से यह जीव इसलोक और परलोक दोनों में ही विलक्षण सुख का भागी होता है। इन्द्रिय और मन को दमन करना कोई साधारण
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