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________________ उत्तराध्ययन सूत्र - पहला अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ देखने या न देखने पर भी वह उसे गुप्त न रखे। यदि उसने असद् भाषण किया है तो स्पष्ट शब्दों में कह दे कि मैंने यह किया है और उसने असत्य न बोला हो तो भी कह दे कि मैंने असत्य नहीं बोला है। इस प्रकार अपने अपराध की स्वीकृति में जरा भी संकोच नहीं करे। . विनीत की प्रवृत्ति और निवृत्ति मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो। कसं वा दट्ठमाइण्णे, पावगं परिवज्जए॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - गलियस्सेव , गलित घोड़े (अडियल) की तरह, कसं - चाबुक को, वयणं - वचन को, इच्छे - चाहे, पुणो-पुणो - बार-बार, दटुं - देखकर, आइण्णे - आकीर्ण-विनयवान्, पावगं - पाप कर्म को, परिवजए - छोड़ दे। . भावार्थ - जैसे अडियल घोड़ा बार-बार चाबुक की मार खाये बिना सवार की इच्छानुसार प्रवृत्ति नहीं करता, इसी प्रकार विनीत शिष्य को हर समय गुरु महाराज को कहने का अवसर न देना चाहिए किन्तु जिस प्रकार जातिवंत विनीत घोड़ा चाबुक को देखते ही सवार की इच्छानुसार प्रवृत्ति करता है, उसी प्रकार विनीत शिष्य को गुरु का इंगिताकार समझ कर उनके मनोभाव के अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए और पाप का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। विवेचन - इस गाथा में उपमा अलंकार का चित्र बड़ी ही सुंदरता से खींचा गया है। जैसे विनीत घोड़ा अपने स्वामी के आदेशानुसार चलने से अभीष्ट स्थान पर पहुंच जाता है उसी प्रकार गुरुजनों की आज्ञा पालन करता हुआ विनयशील शिष्य भी अपने अभीष्ट स्थान- मोक्ष मंदिर तक पहुँच जाता है। यहाँ पर घोड़े के समान शिष्य, चाबुक के समान वचन और मार्ग के समान मोक्ष मार्ग को समझना चाहिए तथा दुष्ट घोड़े के सदृश (समान) कुशिष्य है और विनीत घोड़े के समान सुशिष्य को समझे। अविनीत शिष्य के लिए चाबुक के आघात के समान तो गुरुजनों के आदेश रूप बार-बार के वचन हैं और विनीत शिष्य के लिए चाबुक के देखने के समान उनकी भाव सूचक अंगचेष्टा है। . सारांश यह है कि सुशील (विनीत) घोड़ा अपने स्वामी के आदेश का पालन करता हुआ स्वयं सुखी रह कर अपने स्वामी को भी सुख पहुंचाता है, इसी प्रकार गुरुजनों के उपदेशानुसार चलने वाला विनीत शिष्य भी अपनी आत्मा में किसी विलक्षण सुख का अनुभव करता हुआ अपनी आध्यात्मिक प्रवृत्ति से गुरुजनों को भी प्रसन्न कर लेता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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