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________________ ब्रह्मचर्य - समाधि स्थान ब्रह्मचर्य की महिमा शंका स्थानों का त्याग दुज्जए कामभोगे य, णिच्चसो परिवज्जए । संकाठाणाणि सव्वाणि, वज्जेज्जा पणिहाणवं ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - णिच्चसो- सदैव, संकाठाणाणि - शंका स्थानों से, वज्जेज्जा दूर रहे, पणिहाणवं - स्थिर चित्त वाला । भावार्थ - संयम में एकाग्र मन रखने वाले ब्रह्मचारी पुरुष को चाहिए कि दुर्जय (कठिनाई से जीते जाने योग्य) कामभोगों को सदा के लिए त्याग दे और जिन-जिन बातों से ब्रह्मचर्य में किसी प्रकार की हानि पहुँचने की संभावना हो, ऐसे शंका के सभी स्थानों को भी सदैव के लिए त्याग दे । ब्रह्मचर्य की समाधि - स्थायिता धम्मारामे चरे भिक्खू, धिइमं धम्मसारही । धम्मारामे रए दंते, बंभचेर - समाहिए ॥ १५ ॥ कठिन शब्दार्थ - धम्मारामे - धर्मबाग में, धिइमं धैर्यवान्, धम्मसारही - धर्मसारथि, धम्मारामे र धर्म रूपी उद्यान में रत, दंते - दात्त, बंभचेरसमाहिए - ब्रह्मचर्य में सुसमाहित (समाधिमान्) । - Jain Education International - २६१ *** भावार्थ - धैर्यवान्, धर्म रूप रथ को चलाने में सारथि के समान, पाप के ताप से संतप्त प्राणियों को शान्ति देने वाले धर्म रूपी बगीचे में अनुरक्त, इन्द्रियों को दमन करने वाला ब्रह्मचर्य में समाधिवंत साधु सदैव धर्म (संयम रूपी) बगीचे में ही रमण करे । ब्रह्मचर्य की महिमा 1 - देवदाणवगंधव्वा, जक्ख- रक्खस किण्णरा । बंभयारिं णमंसंति, दुक्करं जे करंति तं ॥ १६ ॥ कठिन शब्दार्थ - देवदाणवगंधव्वा - देव, दानव, गन्धर्व, जक्ख- रक्खस्स किण्णरा नमस्कार करते हैं, दुक्करं यक्ष, राक्षस, किन्नर, बंभयारिं - ब्रह्मचारी को, णमंसंति दुष्कर, करंति - करता है । For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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