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________________ २८४ . . उत्तराध्ययन सूत्र - सोलहवां अध्ययन .. *aaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa***** विवेचन - जो अतिमात्रा (शास्त्र में बतलाये हुए परिणाम* से अधिक) आहार-पानी का सेवन नहीं करता वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। नवम ब्रह्मचर्य समाधि स्थान-विभूषा त्याग णो विभूसाणुवादी हवइ से णिगंथे। तं कहमिति चे? आयरियाह-णिग्गंथस्स खलु विभूसावत्तिए विभूसियसरीरे इत्थीजणस्स अभिलसणिज्जे हवइ। तओ णं तस्स इत्थीजणेणं अभिलसिजमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जेज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु णो णिग्गंथे विभूसाणुवादी हवेज्जा॥६॥ कठिन शब्दार्थ - विभूसाणुवादी - विभूषानुपाती - शरीर संस्कारकर्ता-शरीर को सजाने . वाला, विभूसावत्तिए - विभूषावृत्तिक-जिसका स्वभाव विभूषा करने का है, विभूसियसरीरे - विभूषित शरीर, इत्थीजणस्स - स्त्रियों की, अभिलसणिज्जे - अभिलाषणीय। . भावार्थ - जो शरीर की विभूषा नहीं करता है, वह निग्रंथ है। ऐसा क्यो? इस प्रकार पूछने पर आचार्य कहते हैं - जिसकी मनोवृत्ति विभूषा करने की होती है, जो शरीर को विभूषित (सुसज्जित) किये रहता है, वह स्त्रियों की अभिलाषा का पात्र बन जाता है। इसके पश्चात् स्त्रियों द्वारा चाहे जाने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा अथवा विचिकित्सा उत्पन्न हो जाती है अथवा ब्रह्मचर्य भंग हो जाता है अथवा उसे उन्माद पैदा हो जाता है या उसे दीर्घकालिक रोग और आतंक हो जाता है। अथवा वह केवलि-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निग्रंथ विभूषानुपाती न बने। विवेचन - विभूषा करने वाला साधु स्त्रीजनों द्वारा अभिलाषणीय हो जाता है, स्त्रियां उसे चाहने लगती हैं, स्त्रियों द्वारा चाहे जाने या प्रार्थना किये जाने पर ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न हो जाती है। जैसे - जब स्त्रियां इस प्रकार मुझे चाहती है तो क्यों न मैं इनका उपभोग कर लूं? अथवा इसका उत्कृष्ट या उत्कट परिणाम नरक * टीकाकार ने टीका में पुरुष के लिए ३२ कवल (ग्रास), स्त्री के लिए २८ और नपुंसक के लिए २४ कवल आहार का परिमाण बतलाया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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