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________________ २६४ उत्तराध्ययन सूत्र - पन्द्रहवां अध्ययन ************************************************************* णो सक्कियमिच्छइण-पूर्य, णो वि य वंदणयं कुओ पसंसं। से संजए सुव्वए तबस्सी, सहिए आयगवेसए स भिक्खू॥५॥ से कठिन शब्दार्थ :- सक्कियं - सत्कार को, इच्छइ - इच्छा नहीं रखता है, पूर्व- पूजा की, वंदणगं - वंदना की, कुओ - कैसे, पसंमं - प्रशंसा की, संजए - संयत, सुव्वंए - सुव्रती, जवस्सी - तपस्वी, सहिए - सहित, आयगवेसए - आत्मगवेषक। भावार्थ - जो सत्कार और पूजा प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं रखता है। वन्दना और प्रशंसा की किचिन्मात्र भी इच्छा नहीं रखता है। जो संयत-संयति, सुव्रती, तपस्वी, सहित-सम्यग् ज्ञानवान् एवं आत्मगवेषक है, वह भिक्षु है। ... ___ विवेचन - जो सच्चा साधु होता है वह प्रशंसा, वंदना, पूजा, सत्कार के लिए न संयम . पालन करता है, न व्रताचरण करता है, न तप करता है और न आचार का पालन करता है। वह तो एक मात्र कर्मनिर्जरा के लिए - आत्म विशुद्धि के लिए ही संयम, व्रत, तप आदि करता है। प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त सत्कार, पूजा, वंदना और प्रशंसा की चाह आत्मार्थी साधक के लिये अत्यंत नाधक है। जिस गांव या नगर में पहुंचे वहां जनसमूह बड़ी संख्या में स्वागत के लिए . सामने आए, विहार करे तब दूर-दूर तक लोग पहुँचाने आए, सभा में प्रवेश करते ही लोग आदर सहित जय जयकार करे, ऐसी इच्छा रखना सत्कार-चाह है। लोग सुंदर वस्त्र, पात्र, स्वादिष्ट सरस आहार आदि बहरा कर सम्मानित करें, ऐसी इच्छा रखना पूजा की चाह है। लोग मुझे देखते ही विधियुक्त वंदना करे, नमन करे, ऐसी इच्छा वंदन की चाह है। लोग मेरी एवं मेरे गुणों की सराहना करे, लोगों में मेरी प्रसिद्धि हो, ऐसी आकांक्षा रखना, प्रशंसा की चाह है। . जेण पुणो जहाइ जीविय, मोहं वा कसिणं णियच्छइ। . __णरणारिं पजहे सया तवस्सी, ण य कोऊहलं उवेइ स भिक्ख॥६॥ .. कठिन शब्दार्थ - 'जेण - जिससे, पुणो - फिर, जहाइ - छूट जाता है, जीवियं - संयमी जीवन, णियच्छइ - बढ़ता है, णरणारि - नर और नारी को, पजहे - त्यागता है, कोऊहलं - कौतुहल को, ण उवेइ - नहीं करता है। भावार्थ - जिनका संग करने से संयम रूप जीवन का सर्वथा विनाश हो जाता हो अथवा सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का बन्ध होता हो, ऐसे नर और नारी की संगति को जो तपस्वी मुनि सदा के लिए छोड़ देता है और जो कुतूहल को प्राप्त नहीं होता एवं पूर्व भोगे हुए भोगादि का स्मरण नहीं करता है, वह भिक्षु है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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