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________________ अभिभूत - परीषों को जीत कर, सव्वदंसी वाला, जे - जो, कम्हिवि - किसी वस्तु पर भी, ण मुच्छिए - मूर्च्छित नहीं होता । - भावार्थ राग-रहित और लाढ -प्रधान संयम मार्ग में दृढ़ता पूर्वक विचरने वाला, विरत असंयम से निवृत्त, वेदवित् - शास्त्रों का ज्ञाता आत्म रक्षक, बुद्धिमान, परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करने वाला, सर्वदर्शी, सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखने वाला तथा जो किसी भी पदार्थ में ममत्व नहीं रखता है, वह भिक्षु है। अक्कोसवहं विइत्तु धीरे, मुणी चरे लाढे णिच्चमायगुत्ते । मारपीट को, अव्वग्गमणे असंपहिट्टे, जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - अक्कोसवहं - आक्रोश- कठोर वचन और वध विइत्तु जान कर, धीरे - धीर, मुणी - मुनि, णिच्चं नित्य, आयगुत्ते - आत्म गुप्त, अव्वग्गमणे व्यग्र मन से रहित, असंपहिट्टे - हर्ष से रहित, कसिणं परीषहों को, अहियासए - सहन करता है। कृत्स्न - संपूर्ण भावार्थ - यदि कोई साधु को कठोर वचन कहे अथवा मारे-पीटे तो उसे अपने पूर्वकृत कर्मों का फल जान कर जो मुनि समभाव पूर्वक सहन करता है और जो श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्ति करता है तथा सदा आत्मगुप्त - पापकार्यों से अपनी आत्मा की रक्षा करता है और जो चित्त में किसी प्रकार का हर्ष - विषाद न लाते हुए कृत्स्न संयम मार्ग में आने वाले सभी कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करता है, वह भिक्षु है। पंतं सयणासणं भत्ता, सीउन्हं विविहं च दंसमसगं । - Jain Education International भिक्षु - सद्भिक्षु के लक्षण - अव्वग्गमणे असंपहिट्ठे, जे कसिणं अहियासए स भिक्खू ॥ ४ ॥ कठिन शब्दार्थ पंतं प्रान्त - निःस्सार, सयणासणं - शयनासन, शय्या आसन को, भइत्ता सेवन करके, सीउण्हं - शीत और उष्ण, विविहं - विविध प्रकार के, दंसमसगं दंश और मशक आदि परीषहों के प्राप्त होने पर । भावार्थ - प्रांत जीर्ण शय्या और आसन के मिलने पर तथा शीत-उष्ण, डांस मच्छर आदि अनेक प्रकार के परीषहों के उत्पन्न होने पर जो चित्त में किसी प्रकार की व्याकुलता न लाता हुआ एवं हर्ष - विषाद न करता हुआ कृत्स्न सभी कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करता है, वह भिक्षु है। - सर्वदर्शी - सभी जीवों को अपने समान देखने २६३ *** - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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