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इषुकारीय- भृगु पुरोहित का कथन-जीव का अस्तित्व निषेध
कठिन शब्दार्थ
धणेण धन से, धम्मधुराहिगारे
धर्म धुरा के अधिकार में,
सयणेण
वाले, समा
स्वजन से, कामगुणेहि - कामभोगादि से, गुणोहधारी - गुणों को धारण करने भविस्सामु बनेंगे, बहिं विहारा - अप्रतिबद्ध विहारी, अभिगम्मआश्रय लेकर, भिक्खं - शुद्ध भिक्षा का ।
श्रमण,
भावार्थ - कुमार अपने पिता से कहते हैं कि हे पिताजी! धर्मधुरा के अधिकार में अर्थात् धर्माचरण के विषय में धन से क्या प्रयोजन है? अथवा स्वजन सम्बन्धियों से और काम-भोगादि से भी क्या प्रयोजन है ? (अर्थात् धन, स्वजन और काम- भोगादि ये सब धर्म के सामने अत्यन्त तुच्छं हैं, इसलिए हम दोनों) सम्यग्दर्शनादि गुणों को धारण करने वाले श्रमण बनेंगे और द्रव्य और भाव से अप्रतिबद्ध हो कर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए शुद्ध भिक्षावृत्ति से अपना जीवन व्यतीत करेंगे। विवेचन धन, स्वजन और विषय भोग दुःखों में डालने वाले हैं अतः हमें इनसे नहीं, श्रमणत्व से प्रयोजन है।
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भृगु पुरोहित का कथन जीव का अस्तित्व निषेध
दिखाई
जहा य अग्गी अरणी असंतो, खीरे घयं तेल्ल - महातिलेसु । एमेव जाया! सरीरंसि सत्ता, संमुच्छइ णासइ णावचिट्ठे ॥ १८ ॥ कठिन शब्दार्थ अग्गी - अग्नि, अरणी - अरणि के काष्ठ में से, •असंतो नहीं देने पर भी, खीरे दूध से, धयं - घी, तेल्ल - तेल, महातिलेसु - तिलों में, सरीरंसि - शरीर में से, सत्ता - जीव, संमुच्छइ - पैदा हो जाता है, णासइ - नष्ट हो जाता है, णावचिट्ठे - अस्तित्व नहीं रहता ।
भावार्थ - भृगु पुरोहित कहता है कि हे पुत्रो! जिस प्रकार अरणि (काष्ठ) से अग्नि, दूध से घी और तिलों से तेल प्रत्यक्ष रूप से दिखाई न देने पर भी ये सब वस्तुएं संयोग मिलने से स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं, इसी प्रकार इस शरीर में जीव स्वतः उत्पन्न हो जाता है और शरीर का नाश होने के साथ ही नष्ट हो जाता है, किन्तु बाद में नहीं रहता है, इसी प्रकार जब आत्मा नाम की कोई चीज ही नहीं है तो फिर संयम लेकर क्यों व्यर्थ कष्ट उठाते हो ? ॥ १८ ॥
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