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________________ चित्तसंभूडुजं तेरहमं अज्झयणं चित्तसंभूतीय नामक तेरहवां अध्ययन उत्थानिका - बारहवें अध्ययन में श्रुत और तप का महत्त्व बताया गया है। श्रुत और तप, तब तक शुद्ध रहते हैं जब तक की निदान न किया जाय, क्योंकि निदान का फल अशुभ होता है। इस तेरहवें अध्ययन में आगमकार ने चित्त और संभूत का उदाहरण देकर निदान करने वाले और निदान नहीं करने वाले का प्रत्यक्ष फल प्रदर्शित किया है। यथा . संभूत एवं चित्त का परिचय जाइपराइओ खलु, कासी णियाणं तु हथिण-पुरम्मि। चुलणीए बंभदत्तो, उववण्णो पउमगुम्माओ॥१॥ कंपिल्ले संभूओ चित्तो, पुण जाओ पुरिमतालम्मि। सेहि कुलम्मि विसाले, धम्मं सोऊण पव्वइओ॥२॥' कठिन शब्दार्थ - जाइपराइओ - जाति से पराजित, णियाणं - निदान, हत्थिणपुरम्मिहस्तिनापुर में, चुलणीए - चूलनी की कुक्षि में, बंभदत्तो - ब्रह्मदत्त, उववण्णो - उत्पन्न हुए, पउमगुम्माओ - पद्म गुल्म विमान से, कंपिल्ले - कांपिल्य नगर में, संभूओ - संभूत, चित्तो - चित्त, पुण - फिर, जाओ - उत्पन्न हुआ, पुरिमतालम्मि - पुरिमताल नगर में, विसाले - विशाल, धम्म - धर्म को, सोऊण - सुनकर, पव्वइओ - दीक्षित हो गया। . भावार्थ - संभूत ने पूर्वभव में हस्तिनापुर नगर में चांडाल जाति के कारण अपमानित एवं चक्रवर्ती की ऋद्धि देख कर 'मुझे भी मेरे तप के फलस्वरूप चक्रवर्ती की ऋद्धि प्राप्त हो इस प्रकार निश्चय ही निदान किया था। इस निदान के फलस्वरूप वह सौधर्म नामक पहले देवलोक के पद्मगुल्म विमान से चव कर कांपिल्य नगर में चुलनी रानी के यहाँ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हो कर उत्पन्न हुआ और संभूत का पूर्वभव का भाई चित्त पुरिमताल नगर में विशाल सेठ के कुल में उत्पन्न हुआ तथा धर्म को श्रवण कर प्रव्रज्या धारण की। विवेचन - चांडाल भव में संभूत और चित्त दोनों भाई थे। यहाँ पूर्वभव के नाम से ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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