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________________ १५२ उत्तराध्ययन सूत्र - नौवां अध्ययन kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk अहो ते णिज्जिओ कोहो, अहो माणो पराइओ। अहो ते णिरक्किया माया, अहो लोहो वसीकओ॥५६॥ कठिन शब्दार्थ - अहो - आश्चर्य है, णिजिओ - जीत लिया, कोहो - क्रोध को, माणो - मान को, पराइओ - पराजित किया, णिरक्किया - निराकृत (दूर) किया, माया - माया को, लोहो - लोभ को, वसीकओ - वश में किया। भावार्थ - हे नमिराज! आश्चर्य है कि आपने क्रोध को जीत लिया है। आश्चर्य है कि आपने मान को पराजित कर दिया है। आश्चर्य है कि आपने माया को दूर कर दिया है। आश्चर्य है कि आपने लोभ को वश कर लिया है। विवेचन - इन्द्र नमि राजर्षि से कहने लगा कि हे भगवन्! मुझे आश्चर्य है कि आपने प्रबल क्रोध को जीत लिया है, क्योंकि मैंने पहले आप को शत्रु राजाओं को वश में करने के लिए कहा था, किन्तु आपने शान्तिपूर्वक उत्तर दिया कि आत्मा को वश में करना ही सर्वोत्तम है, दूसरों को वश में करने से कोई लाभ नहीं होता। अतएव मुझे निश्चय हो गया है कि आपने क्रोध-शत्रु को जीत लिया है। हे नमिराज! मुझे आश्चर्य होता है कि आपने मान(अहंकार) को भी जीत लिया है। मैंने आपसे कहा था कि आपके अन्तःपुर तथा महलं आदि को अग्नि भस्म कर रही है, इसको शान्त करना आपका कर्तव्य है। इस बात को सुन कर आपको यह अहंकार नहीं आया कि 'मेरे जीते जी मेरे अन्तःपुर आदि को कौन जला सकता है। किन्तु आपने इसका शान्तिपूर्वक उत्तर दिया कि 'मेरा ज्ञान, दर्शन, चारित्र मेरे पास है। नगर में मेरा कुछ भी नहीं है।' आप के इस उत्तर को सुन कर मुझे निश्चय हो गया है कि आपमें अहंकार नहीं है। महात्मन्! मुझे आश्चर्य होता है कि आपने माया का भी तिरस्कार कर दिया है, क्योंकि नगर की रक्षा के लिए कोट किला आदि बनाने के लिए मैंने आपसे कहा था, किन्तु आपने कहा कि धर्म की ही रक्षा करनी चाहिये। इससे मुझे निश्चय हो गया कि आप माया-रहित हैं। हे महात्मन्! मुझे आश्चर्य होता है कि आपने लोभ का भी नाश कर दिया है, क्योंकि मैंने आपसे कहा था कि मणि मोती सोना चांदी आदि से कोष की वृद्धि करने के पश्चात् दीक्षा लेनी चाहिए। आपने उत्तर दिया कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है, इसका पूर्ण होना असंभव है। एक संतोष ही तृष्णा को पूर्ण कर सकता है। इससे मुझे निश्चय हो गया कि आपने लोभ को भी जीत लिया है। उपरोक्त उत्तरों से मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है कि आपने क्रोध, मान, माया और लोभ - • इन चारों को जीत लिया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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