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________________ [11] *atkakkadkikthaktadkakk★ ★★dattattataka ★★★★★★★ और आनंद की अनुभूति होती है यावत् देव उनके चरणों के दास बन जाते है। इसके विपरीत अब्रह्म का सेवन करने वाले को दुर्गति का मेहमान बनना पड़ता है। इसके दुष्परिणामों का उल्लेख किया गया है। सतरहवाँ अध्ययन - पाप श्रमण - जो पूर्ण त्याग वैराग्य के साथ जैन प्रव्रज्या स्वीकार करने के पश्चात् कालान्तर में प्रमाद, इन्द्रिय वशीभूत, प्रतिष्ठा, सुखशीलियापन, गृहस्थों के कार्यों में संलग्न आदि अनेक कारणों से अपने स्वीकृत महाव्रतों में स्खलना करता है। जिसके कारण आगमकार ने उन्हें श्रमण होते हुए भी ‘पाप श्रमण' कहा। इस अध्ययन में किन-किन कारणों से पापश्रमण बन जाता, इसका दिग्दर्शन करा कर, सभी श्रमण-श्रमणियों को ऐसी पापश्रमणता से दूर रहने का निर्देश दिया है। अठारहवाँ अध्ययन - संजयीय - इस अध्ययन में संजय राजा के शिकारी जीवन की गर्दभालिमुनि के सत्संग से कैसा परिवर्तन हुआ उसका सुन्दर संवाद के रूप में विवेचन किया गया। राजा मुनि के उपदेश से प्रव्रजित हो जाते हैं। तत्पश्चात् उनका (संजयराजर्षि) का. क्षत्रियमुनि से परिचय हुआ। क्षत्रिय मुनि ने संजयराजर्षि को धर्म में दृढ़ करने के लिए भरत आदि दस चक्रवर्ती जो मोक्ष पधारे तथा दशार्णभद्र, नमिराज, करकण्डु आदि चार प्रत्येक बुद्ध, उदायन, विजय, काशीराज, महाबल आदि बीस महान् व्यक्तियों के त्यागमय जीवन का दिग्दर्शन कराया। इस अध्ययन में संजयराजर्षि के कथानक के साथ अनेक महापुरुषों की अवान्तर कथाओं का समावेश हुआ है। _उन्नीसवाँ अध्ययन - मृगापुत्रीय - सुग्रीवनगर के राजा बलभद्र और रानी मृगावती का आत्मज राजकुमार का नाम यद्यपि 'बलश्री' था, किन्तु मृगा रानी का आत्मज होने से 'मृगापुत्र' के नाम से प्रसिद्ध हुए। एक दिन राजकुमार अपने झरोखे में बैठा कर नगर की शोभा निहार रहा था, उस समय उनकी दृष्टि राजमार्ग पर जाते हुए एक महान् तेजस्वी मुनि पर पड़ी उन्हें वे टकटकी लगाकर देखने लगे जिससे उन्हें जाति स्मरण ज्ञान हो गया। जाति स्मरण ज्ञान से उन्हें अपने पूर्व भव में पाला गया संयम स्मृति में आ गया। तत्पश्चात् वे तुरन्त माता-पिता के पास आये और दीक्षा की आज्ञा मांगी। माता-पिता ने संयम के कष्टों को बताया जिसका मृगापुत्रजी ने यथोचित समाधान दिया और दीक्षा ग्रहण कर के उत्कृष्ट संयम की साधना कर मोक्ष को प्राप्त किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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