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________________ ७६ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र वैसा कर दो दिनों का चौविहार-निर्जल उपवास किया। पुनश्च, चन्द्रमा का उत्तराषाढा नक्षत्र के साथ योग होने पर-उत्तम मुहूर्त में अपने चार-सहस्र उग्र, भोग, राजन्य एवं क्षत्रिय - इन विशिष्ट पुरुषों के साथ एवं देव दूष्य-दिव्य वस्त्र ग्रहण कर मंडित होकर अगार-गृहस्थावस्था से, अनगार-मुनिधर्म में दीक्षित हो गए। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में "त्रिपदी की प्रधानता के साथ आख्यान" करने का उल्लेख हुआ है, उस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि जैन दर्शन के समस्त पदार्थ विषयक विवेचन का मूल "उपन्ने वा विगमे वा धुवे वा" - इन तीन पदों में अन्तर्गर्भित है। प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य - इन तीन स्थितियों से संबद्ध है। पर्यायात्मक दृष्टि से जब अभिनव पर्याय की उत्पत्ति होती है तब विगत पर्याय नष्ट हो जाता है किन्तु पदार्थ का मूल स्वरूप सर्वदा विद्यमान रहता है। इसलिए पदार्थ ध्रुव-शाश्वत है। इसे जैन दर्शन का परिणामी नित्यत्ववाद कहा जाता है, जो पदार्थ के नित्यत्व के साथ-२ उसके परिणामित्व-पर्यायात्मक अपेक्षा से परिणमनशीलता का द्योतक है। तीर्थंकरों के उपदेश का मुख्य आधार त्रिपदी है। पुरुष की बहत्तर कलाएँ - बहत्तर कलाएं निम्नांकित हैं - १. लेख-लिपिज्ञान २. चित्रांकन ३. अंक गणित, रेखा गणित, बीज गणित आदि का अध्ययन ४. नाट्य ५. गानविद्या ६. वाद्य वादन ७. संगीत के षड्ज, ऋषभ आदि स्वरों का ज्ञान ६. मृदंग विषयक ज्ञान ६. गीतानुरूप ताल प्रयोग का बोध १०. द्यूत ११. लोगों के साथ हार-जीत मूलक वाद-विवाद १२. पासा-छूत क्रीड़ा का उपकरण विशेष १३. चौपड़ १४. नगर-रक्षा मूलक कार्य १५. जल एवं मिट्टी के संयोग से निर्माण १६. अन्नोत्पादन एवं पाकविधि का ज्ञान १७. पानी को उत्पन्न संस्कारित और शुद्ध करने का ज्ञान १८. वस्त्र विषयक ज्ञान १९. चंदनादि चर्चनीय पदार्थों का ज्ञान २०. शैय्या एवं शयन विषयक ज्ञान २१. आर्या या मात्रिक छंदों का बोध २२. प्रहेलिका बनाना, सुलझाना २३. मागधी भाषा में पद-रचना २४. प्राकृत में गाथा आदि छंदों में पद्य निर्माण २५. गीतिका २६. अनुष्टुप आदि छंदों में श्लोक बनाना २७. रजत निर्माण २८. स्वर्ण निर्माण २६. काष्ठादि वनौषधियों के समुचित संयोजन से विविध रसायनात्मक निर्माण ३०. आभरण विषयक ज्ञान ३१. तरुणी-परिकर्म-युवा स्त्री के सौन्दर्य वर्द्धन एवं प्रसाधन का ज्ञान ३२. स्त्री के सामुद्रिक शास्त्रोक्त शुभाशुभ लक्षणों का ज्ञान ३३. पुरुष के शुभाशुभ लक्षणों का बोध ३४. अश्व लक्षण ३५. गज लक्षण ३६. गो लक्षण ३७ कुक्कुट लक्षण ३८. छत्र लक्षण ३६. दण्ड लक्षण ४०. खडग लक्षण ४१. मणि लक्षण ४२. चक्रवर्ती के काकणि नामक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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