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________________ ७४ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र अंजलिमालासहस्साइं पडिच्छमाणे पडिच्छमाणे, मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुज्झमाणे पडिबुज्झमाणे, भवणपंतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे, समइच्छमाणे) आउलबोलबहुलं णभं करते विणीयाए रायहाणीए मज्झमझेणं णिग्गच्छइ। आसिय-संमज्जिय-सित्त-सुइक-पुप्फोवयारकलियं सिद्धत्थवणविउलरायमग्गं करेमाणे हय-गय-रह-पहकरेण पाइक्कचडकरेण य मंदं २ उद्भूयरेणुयं करेमाणे २ जेणेव सिद्धत्थवणे उज्जाणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे सीयं ठावेइ, ठाबित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता सयमेवाभरणालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव चउहिं अट्टाहिं लोयं करइ, करित्ता छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं आसाढाहिं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उग्गाणं, भोगाणं, राइण्णाणं, खत्तियाणं चउहि सहस्सेहिं सद्धिं एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। ___ शब्दार्थ - विगोवइत्ता - अपने को बचाकर, बहुले - कृष्ण पक्ष, णंगलिए - लांगलिकहलधारी, आइक्खग - आख्यापक, मणुण्णाहि - मनोरम, उराल - उदार, णयणमाला - नेत्रों की कतार, आउल - आकुल, अट्ठाहिं - आस्थापूर्वक। भावार्थ - चवदहवें कुलकर श्री नाभि की भार्या मरूदेवी से उत्पन्न, जो कौशल में अवतीर्ण प्रथम राजा, प्रथम अर्हत्, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर, प्रथम धर्मवरचातुरंत चक्रवर्ती ऋषभ हुए। अर्हत् ऋषभ ने बीस लाख पूर्व कुमारावस्था में व्यतीत किए। वे तिरेसठ लाख पूर्व महाराजावस्था में रहे। उस काल में उन्होंने लेखन से लेकर पक्षियों की वाणी की पहचान तक, जिनमें गणित आदि मुख्य थीं, विविध कलाओं का उपदेश दिया। इनमें पुरुषों की बहत्तर कलाओं एवं स्त्रियों की चौसठ कलाओं तथा सौ प्रकार के कर्म विज्ञान का, त्रिपदी की प्रधानता के साथ आख्यान किया। यों कला एवं शिल्प का उपदेश-शिक्षण प्रदान कर उन्होंने अपने सौ पुत्रों का सौ राज्यों में अभिषेक किया। इस प्रकार पुत्रों को राज्याभिषिक्त करने तक वे तिरासी लाख पूर्व पर्यन्त गृहस्थावास में रहे। इस प्रकार गृहस्थ जीवन में रहने के उपरांत ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास-चैत्र के महीने में, कृष्ण पक्ष में, नवमी तिथि के मध्यानोत्तर काल के अनंतर चांदी, सोना, राजकोष, कोष्ठागारधान्यागार, चतुरंगिणी सेना, गज, अश्व आदि वाहन, नगर, अंतःपुर, विपुल धन, रत्न, मुक्ता, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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