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द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी का प्रथम आरक : सुषम-सुषमा
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हे गौतम! वे सब वहाँ होते हैं परंतु उस काल के मनुष्यों का उनमें तीव्र प्रेम बंधनस्नेहात्मक संबंध नहीं होता।
अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे अरीइ वा, वेरिएइ वा, घायएइ वा, वहएइ वा, पडिणीयए वा, पच्चामित्तेइ वा?
गोयमा! णो इणढे समढे, ववगयवेराणुसया णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो!।
भावार्थ - हे भगवन्! क्या उस समय भरत क्षेत्र में अरि, वैरी, घाति, बंधक, प्रत्यनीक तथा प्रत्यमित्र होते हैं?
हे गौतम! वहाँ वे नहीं होते, क्योंकि उस काल के मनुष्य वैरानुबंध तथा पश्चात्ताप से रहित होते हैं।
विवेचन - ‘अरि' शब्द ऋ धातु के आगे इन् प्रत्यय लगाने से बनता है। 'ऋ' धातु चोट पहुँचाने, पीड़ित करने या आहत करने के अर्थ में है। बैरी-जन्मजात वैरानुभाव युक्त व्यक्ति, घातकं-अन्यों के द्वारा वध करवाने वाले व्यक्ति, वधक-स्वयं हत्या करने वाले, प्रत्यनीक-कार्यों * में विघ्न करने वाले, प्रत्यमित्र-पहले मित्र रूप में रहकर पश्चात् शत्रु बन जाने वाले व्यक्ति से अभिहित हुए हैं।
अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे मित्ताइ वा, वयंसाई वा, णायएइ वा, संघाडिएइ वा, सहाइ वा, सुहीइ वा, संगइएइ वा?
हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं तिव्वे राग-बंधणे समुप्पजइ।
भावार्थ - हे भगवन्! क्या उस समय भरत क्षेत्र में मित्र, वयस्क, ज्ञातक, संघाटिक, सखा, सुहृद एवं सांगतिक होते हैं? __ हे गौतम! ये सब यद्यपि वहाँ होते हैं किन्तु उन मनुष्यों का उनमें तीव्र रागानुबंध-स्नेह या राग उत्पन्न नहीं होता। - विवेचन - अनुरागी जन-मित्र, समवयस्क साथी-वयस्य, प्रगाढ स्नेहयुक्त स्वजातीय जन-ज्ञातक, हर समय साथ रहने वाले संघाटिक, एक साथ खाना-पीना करने वाले सखा, प्रगाढतम स्नेह युक्त पुरुष-सुहृद, हर समय साथ रहने वाले हितचिंतक-सागतिक-इन संज्ञाओं द्वारा अभिहित किए जाते रहे हैं।
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