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द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी का प्रथम आरक : सुषम-सुषमा
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अस्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे गामाइ वा जाव संणिवेसाइ वा? . गोयमा! णो इणढे समढे, जहिच्छिय-कामगामिणो णं ते मणुया पण्णत्ता।
अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे असीइ वा, मसीइ वा, किसीइ वा, वणिएत्ति वा, पणिएत्ति वा, वाणिज्जेइ वा? ।
गोयमा! णो इणढे समढे, ववगय-असि-मसि-किसि-वणिय-पणियवाणिज्जा णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो!।
अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे हिरण्णेइ वा, सुवण्णेइ वा, कंसेइ वा, दूसेइ वा, मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवालरत्तरयणसावइज्जेइ वा? |
हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छइ। - भावार्थ - हे भगवन्! क्या उस समय भरत क्षेत्र में ग्राम-राजस्वकर देय छोटी बस्तियाँ यावत् सन्निवेश-व्यापार हेतु यात्रा करने वाले सार्थवाहों आदि के लिए ठहरने के स्थान होते हैं।
हे गौतम! ऐसा नहीं है। उस काल के मनुष्य स्वभाव से ही स्वेच्छापूर्वक भ्रमण करने वाले होते हैं, ऐसा बतलाया गया है।
हे भगवन्! क्या उस समय भरत क्षेत्र में लोग शास्त्रजीवी, लेखिनीजीवी या कृषिजीवी, वणिक् कलाजीवी, क्रय-विक्रय जीवी एवं विविध व्यापार जीव होते हैं? ___हे गौतम! वे ऐसे नहीं होते। वे मनुष्य असि, मसि, कृषि, पण्य एवं वाणिज्य कला से, तदाधारित. जीविका से रहित होते हैं।
हे भगवन्! क्या उस समय भरत क्षेत्र में रजत, स्वर्ण, कांस्य, दूष्य-वस्त्र, मणि, मुक्ता, शंख, स्फटिक - ये बहुमूल्य पदार्थ होते हैं?
हाँ गौतम! ये सभी पदार्थ वहाँ होते हैं किन्तु उन मनुष्यों के परिभोग में - उपभोग में नहीं आते।
अत्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे रायाइ वा, जुवरायाइ वा, ईसरतलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इन्भ-सेडि-सेणावइ-सत्थवाहाइ वा?
गोयमा! णो इणड्ढे समडे, ववगयइडिसक्कारा णं ते मणुया पण्णत्ता।
भावार्थ - हे भगवन्! क्या उस समय भरत क्षेत्र में राजा, युवराज, ईश्वर, तलवर, माइंबिक, कौटुंबिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति एवं सार्थवाह होते हैं?
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