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जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
अत्थण्णे इत्थ बहवे वरभवणविसिट्ठसंठाणसंठिया दुमगणा सुहसीयलच्छाया पण्णत्ता समणाउसो!।
शब्दार्थ - रुक्ख - वृक्ष, कूट - शिखर, पेच्छा - प्रेक्षागृह, थूभ - स्तूप-चबूतरा। . भावार्थ - हे भगवन्! वे मनुष्य किस प्रकार के आहार का सेवन करते हुए वहाँ रहते हैं? आयुष्मन् श्रमण गौतम! वे वृक्ष रूप घरों में रहते हैं। हे भगवन्! उन वृक्षों का आकार-प्रकार कैसा होता है?
हे गौतम! वे वृक्ष उच्च शिखर, नाट्यगृह, छत्र, ध्वजा, स्तूप, तोरण, गोपुर, वेदिका-बैठने योग्य भूमि, बरामदा, अट्टालिका, प्रासाद, हर्म्य-शिखर रहित श्रेष्ठिगृह, गवाक्ष, बालाग्रपोतिका-जल में बने घर तथा वलभीग्रह-ढालु छत युक्त भवन-इस प्रकार के विविध आकार-प्रकार युक्त है।
इस भरत क्षेत्र में और भी ऐसे विविध प्रकार के भवनों के सदृश वृक्षसमूह हैं, जो सुखप्रद, शीतल छायामय हैं।
(३१) अस्थि णं भंते! तीसे समाए भरहे वासे गेहाइ वा गेहावणाइ वा? .... गोयमा! णो इणढे समढे, रुक्ख-गेहालया णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो!। भावार्थ - हे भगवन्! उस समय भरत क्षेत्र में क्या गेह (गृह) होते हैं? क्या गेहायतन होते हैं?
आयुष्मन् गौतम! वहाँ ऐसा नहीं होता। वृक्ष ही उन मनुष्यों के घर होते हैं, ऐसा प्रतिपादित हुआ है।
विवेचन - प्राकृत के “गेहावण" शब्द के संस्कृत में गेहायतन, गेहापतन या गेहापण रूप बनते हैं। ____ आयतन का अर्थ उपयोग हेतु गृहवर्ती प्रकोष्ठ आदि स्थान, आयतन या आगमन का हेतु उनमें आना, रहना तथा गेहापण का अर्थ गृहयुक्त पण्य स्थान, दुकानें या बाजार होता है। मनुष्य निर्मित आवासों में ऐसी बातें होती हैं किन्तु यौगलिक काल में तो कोई भी अपने लिए घरों का निर्माण नहीं करते। विविध आकार के गृहों में स्थित वृक्ष ही उनके निवास स्थान होते हैं तथा उन्हीं से उन्हें खाद्य, पेय परिधेय वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। अतः वहाँ पण्यगृह आदि की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। क्योंकि यौगलिकों को न किसी से कुछ लेना होता है और न किसी को कुछ देना होता है।
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