________________
द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी का प्रथम आरक : सुषम-सुषमा
४५
णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहियाओ, विचित्तसुह-केउभूयाओ, वावी-पुक्खरिणीदीहियासुणिवेसियरम्मजालहरयाओ, पिंडिम-णीहारिमसुगंधि-सुहसुरभिमणहरं च महयागंधद्धाणिं मुयंताओ, सव्वोउयपुप्फ-फलसमिद्धाओ, सुरम्माओ पासाईयाओ, दरिसणिज्जाओ, अभिरूवाओ, पडिरूवाओ।
शब्दार्थ - उत्तमकट्ठपत्ताए - उत्कर्ष की पराकाष्ठा में, उच्छण्णपडिच्छण्णा - छाए हुएफैले हुए, सेरिआ - सेरिका, गुम्मा - गुल्म, णोमालिआ - नवमालिका, वायविधुयग्गसाला - वायु से प्रकंपित अपनी शाखाओं के अग्रभाग से, मुक्क- मुक्त-गिरते हुए, वणराइओ- वनराजियाँवनपक्तियाँ, सदुणइय- प्रतिध्वनित, छप्पय - भौंरा, अकंटयाओ- कंटकरहित, णिरोययाओ - स्वास्थ्यकर, जीवंजीवग - चकोर, कलहंस - बतख।
भावार्थ - गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से जिज्ञासा की -
हे भगवन्! जंबूद्वीप के अंतर्गत भरत क्षेत्र में जब इस अवसर्पिणी काल का सुषम-सुषमा नामक प्रथम आरक अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा में था, भरत क्षेत्र का आकार-प्रकार-स्वरूप या अवस्थिति किस प्रकार की थी? कृपया फरमाएँ।
भगवान् ने प्रतिपादित किया -
हे गौतम! तब भरत क्षेत्र का भूमिभाग बहुत ही समतल एवं रमणीय था। वह मुरजढोलक के ऊपर के चर्मनद्ध चमड़े से मढे हुए ऊपरी भाग की तरह था यावत् भिन्न-भिन्न प्रकार की पंचरसी मणियों के जैसे वर्णयुक्त तृणों से, मणियों से वह सुशोभित था। वे कृष्ण यावत् शुक्ल-सफेद रंग के थे। उन तृणों एवं मणियों के वर्ण, गंध, स्पर्श, शब्द पूर्व वर्णन के अनुरूप कथनीय हैं। वहाँ बहुत से मनुष्य एवं स्त्रियाँ आश्रय लेते, सोते, खड़े होते, बैठते, करवट बदलते या देह को मोड़ते, हंसते, रमण करते थे।
- ऐसा कहा गया है, भरतक्षेत्र में तब उद्दाल, कुद्दाल, मुद्दाल, कृन्तमाल, नृत्तमाल, दंतमाल, नागमाल, शृंगमाल, शंखमाल तथा श्वेतमाल संज्ञक वृक्ष थे। उनके मूल-जड़ें डाभ तथा अन्य प्रकार के तृणों से रहित थीं। वे उत्तम कंद, उत्तम मूल एवं उत्तम बीज युक्त थे। वे पत्र, पुष्प एवं फलों से आच्छादित रहते थे। अत्यंत कांति - आभामय थे।
- तब भरतक्षेत्र में यत्र-तत्र अनेकानेक भेरूताल, हेरूताल, मेरूताल, प्रभताल, साल, सरल, सप्तपर्ण, पूगीफल-सुपारी, खजूर तथा नारियल के वृक्षों के वन थे। उनकी जड़ें कुश एवं अन्य प्रकार के तृणों से रहित थीं।
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org