________________
द्वितीय वक्षस्कार - अवसर्पिणी का प्रथम आरक : सुषम-सुषमा
जाए कि वे बालाग्र कुरेदे न जा सकें, परिविद्ध न किए जा सकें - उनमें सूई भी चुभोई ना जा सके, आग से जलाए न जा सकें, वायु द्वारा उड़ाए न जा सकें, सड़ गल न सकें। तत्पश्चात् सौसौ वर्ष के अनंतर एक-एक बाल के अग्रभाग को निकाले जाते रहने पर जब वह कोठा सर्वथा रिक्त-खाली, रजकण रहित-धूल के कणों के समान छोटे-छोटे बालारों से सर्वथा शून्य हो जाए, निर्लेप हो जाए-कहीं कोई सटा हुआ, चिपका हुआ बालाग्र न रह जाए, सर्वथा खाली हो जाने की इस प्रक्रिया में जितना समय लगे, उसे एक पल्योपम कहा जाता है।
इस प्रकार के कोटानुकोटि पल्योपमों का दस गुणित एक सागरोपम होता है।
सुषम-सुषमा काल का परिमाण चार कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सुषमा का काल प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ी सागरोपम, सुषम-दुःषमा का काल प्रमाण दो कोड़ाकोड़ी सागरोपम, दुःषम-सुषमा का काल प्रमाण एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम से बयालीस हजार वर्ष कम, दुःषमा का काल प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष तथा दुःषम-दुःषमा का काल प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष है।
उत्सर्पिणी का काल प्रमाण इससे विपरीत-उल्टा होता है। उसमें दुःषम-दुःषमा का काल प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष होता है यावत् सुषम-सुषमा का काल प्रमाण चार कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। इस प्रकार अवसर्पिणी का काल प्रमाण दस सागरोपम कोटानुकोटि एवं उत्सर्पिणी का कालक्रम भी दस. कोटानुकोटि सागरोपम होता है। उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी का सम्मिलित काल प्रमाण बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है।
अवसर्पिणी का प्रथम आरक : सुषम-सुषमा
जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे भरहे वासे इमीसे ओस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे होत्था?
गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवण्णेहिं तणेहि य मणीहि य उवसोभिए, तंजहा - किण्हेहिं जाव सुक्किल्लेहिं। एवं वण्णो, गंधो, रसो, फासो, सद्दो य तणाण य मणीण य भाणियव्वो जाव तत्थ णं बहवे मणुस्सा मणुस्सीओ य.आसयंति, सयंति, चिटुंति, णिसीयंति, तुयटुंति, हसंति, रमंति, ललंति।
For Personal & Private Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org