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प्रथम वक्षस्कार दक्षिणार्द्ध भरतकूट
विजयस्स देवस्स, एवं सव्वकूडा णेयव्वा जाव वेसमणकूडे परोप्परं पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं, इमेसिं वण्णावासे -
गाहा मज्झ वेअड्डस्स उ कणगमया तिण्णि होंति कूडा उ । सेसा पव्वयकूडा सव्वे रयणामया होंति ॥
मणिभद्दकूडे १, वेयढकूडे २, पुण्णभद्दकूडे ३ - एए तिण्णि कूडा कणगामया, सेसा छप्पि रयणमया दोन्हं विसरिसणामया देवा कयमालए चेव णमालए चेव, सेसाणं छण्हं सरिसणामया
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जणाया य कूडा तण्णामा खलु हवंति ते देवा । पलि ओवमट्ठिया हवंति पत्तेयं पत्तेयं ॥ १ ॥
मयहाणीओ जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तिरिअं असंखेज्जदीवसमुद्दे वीईवत्ता अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोअणसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ जं रायहाणीओ भाणियव्वाओ विजयरायहाणीसरिसयाओ ।
शब्दार्थ - उसिय- उच्छ्रित-उठे हुए, पहसिए - प्रहसित- हंसता हुआ सा, पासायवंडिलएप्रासादावतंसक - उत्तम प्रासाद, तिरियम - तिरछे, असंखेज्ज - असंख्यात, वीईवइत्ता - व्यतिवृत्त - कर - लांघने पर, ओगाहिता अवगाहन करने पर नीचे जाने पर, परोप्परं - पर्यन्त तक, असमान नाम वाले, सरिसणामया - सदृश नाम युक्त ।
विसरिणामया
भावार्थ - हे भगवन्! वैताढ्य पर्वत का दक्षिणार्द्ध भरतकूट कहाँ पर अवस्थित है ?
हे गौतम! वह खण्डप्रपात कूट के पूर्व में तथा सिद्धायतन कूट के पश्चिम में विद्यमान है। उसका परिमाण आदि विस्तृत वर्णन सिद्धायतन कूट के सदृश है यावत् वहाँ बहुत से वाणव्यंतर देव और देवियाँ विहरणशील हैं।
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दक्षिणार्द्ध भरत कूट के अत्यंत समतल एवं रमणीय भूमिभाग में एक उत्तम प्रासाद है। वह ऊँचाई में एक कोस तथा चौड़ाई में अर्द्धकोस है । वह भूमि से ऊँचा उठा हुआ है। अपने से निकलती हुई उद्योतमय किरणों से ऐसा प्रतीत होता है, मानो हंस रहा हो यावत् वह बहुत ही सुंदर, मनोज्ञ, अभिरूप और प्रतिरूप है।
उस प्रासाद के बीचों-बीच एक विशाल मणिपीठिका है। वह लम्बाई में पाँच सौ धनुष
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