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________________ पंचम वक्षस्कार रुचकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव किरणों से सुशोभित, उद्योतित, नानाविद्य पांच रंगों की मणियों से सुशोभित था, जैसा राजप्रश्नीय सूत्र में वर्णन आया है। - Jain Education International 1. उस भूमिभाग के बीचों बीच एक प्रेक्षागृह था । वह सैकड़ों स्तम्भों पर अवस्थित था यावत् उसका वर्णन प्रतिरूप पर्यन्त योजनीय है । उस प्रेक्षागृह मण्डप के ऊपर का भाग पद्मलता आदि के चित्रों से युक्त यावत् सर्वथा तपनीय स्वर्ण निर्मित यावत् बड़ा ही सुन्दर था। उस मण्डप के अत्यन्त समतल भूमिभाग के ठीक मध्य में आठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी सर्वथा मणिमय मणिपीठिका बतलाई गयी है। इसका वर्णन पूर्ववत् योजनीय है। इसके ऊपर बड़ा सिंहासन बतलाया गया है। इसका विशेष वर्णन भी पूर्व की तरह कथनीय है। इसके ऊपर एक सर्वरत्नमय विजयदूष्य था, इसका वर्णन भी पहले की तरह हैं। इनके मध्य में एक हीरों से बना हुआ अंकुश है। वहाँ एक कुंभिकाकृति युक्त विशाल माला समूह है। वह माला अपने से आधे ऊंचे, अर्द्धकुंभिका युक्त चार मुक्ता मालाओं से चारों ओर से परिवेष्टित थी । उन मालाओं में तपनीय कोटि के उच्च स्वर्ण से बने हुए लम्बूषक -लूम्बे लटकते थे । स्वर्णपातों से मढ़े हुए थे । वे तरह-तरह की मणियों तथा रत्नों से बने हुए एक-दूसरे से थोड़ीथोड़ी दूरी पर अवस्थित अठारह लड़ के हारों तथा नौ लड़े अर्द्धहारों से विभूषित थे । पूर्वीय वायु के झोखों से वे धीरे-धीरे हिलती हुईं, आपस में एक दूसरे से टकराने के कारण उत्पन्न यावत् कर्णप्रिय शब्दों से आस-पास के स्थानों को भरती हुईं यावत् बड़ी सुहावनी लगती थीं । उस सिंहासन के पश्चिमोत्तर, उत्तर एवं उत्तरपूर्व दिशोपदिशाओं में शक्रेन्द्र के चौरासी हजार सामानि देवों के चौरासी हजार आसन थे। पूर्व में आठ इन्द्राणियों के आठ, दक्षिण पूर्व में आभ्यंतर परिषद् के बारह हजार देवों के बारह हजार, दक्षिण में मध्यम परिषद के चवदह हजार देवों के चवदह हजार, दक्षिण पश्चिम में बाह्य परिषद के सोलह हजार देवों के सोलह हजार तथा पश्चिम में सात सेनाधिपतियों के सात श्रेष्ठ आसन थे । उस सिंहासन की चारों दिशाओं में चौरासी - चौरासी सहस्त्र देवों के चौरासी - चौरासी हजार आसन थे। ये सभी सूर्याभ देव के विमान विषयक पाठ से यावत् देव आकर सूचना करते हैं, पर्यन्त ग्राह्य हैं। (१५०) तणं से सक्के हट्ट जाव हियए दिव्वं जिणेंदाभिगमणजुग्गं सव्वालंकारविभूसियं उत्तरवेउव्वियं रूवं विउव्वइ २ त्ता अट्ठहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं ३५३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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