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________________ पंचम वक्षस्कार - रुचकवासिनी दिक्कुमारिकाओं द्वारा उत्सव *2-12-29-04-08-10-04-08-10-1-1-1-1-28-19-12-14-12-29-40-10-9---14-08-28-12-28-10-20-24-24-10-04-28-08-04-08-28-0--- सुगंधित गंधाटक से उबटन करती है। वैसा कर दोनों को पूर्ववत् ग्रहण कर पूर्वदिशावर्ती कदली गृह के अन्तर्गत चतुःशालभवन में स्थित सिंहासन पर बिठलाती है। वैसा कर सुगंधित पदार्थ मिले हुए जल, पुष्प मिले हुए जल एवं शुद्ध जल-तीन प्रकार के जल से स्नान कराती हैं। तत्पश्चात् सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित करती हैं। पूर्व की ज्यों दोनों को लेकर उत्तर दिग्वर्ती कदली गृह के अन्तरवर्ती चतुःशाल भवन में स्थित सिंहासन पर बिठाती हैं। वैसा कर अपने आभियोगिक देवों को बुलाती हैं, आदेश देती हैं। हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत से गोशीर्ष चंदन काष्ठ लाओ। तब मध्यरुचक वासिनी महनीया देवियों द्वारा यों आदिष्ट होने पर आभियोगिक देव बड़े हर्षित और परितुष्ट हुए यावत् सविनय आदेश को स्वीकार किया। शीघ्र ही चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत से ताजा गोशीर्षचन्दन काष्ठ ले आए। मध्यरुचकवासिनी चारों दिक्कुमारिकाओं ने उनसे तीखे सरकने बनाएं अग्नि उत्पादक काष्ठ बनाएं। सरकनों-सरकण्डों से अरणिकाष्ठ को घिसा तथा अग्नि उत्पन्न की एवं आग को धुकाया। इसमें गोशीर्षचंदन काष्ठ को प्रक्षिप्त किया, अग्नि को प्रज्वलित किया। उसमें समिधाकाष्ठहवनोपयोगी काष्ठ डाला। अग्नि में हवन किया। वैसा कर भूतिकर्म किया। उससे दोनों के रक्षा पोटलिकाएं बांधी। फिर भिन्न-भिन्न प्रकार के मणिरत्नांकित दो पाषाण गोलक लिए, भगवान् तीर्थंकर के कर्णमूल में उन्हें टकराकर आवाज की। जिससे वे उनकी शुभकामना सुन सके और कहां - 'हे भगवन्! आप पर्वत की तरह दीर्घायु हो।' फिर मध्यरुचकवासिनी वे चार महिमामयी दिक्कुमारिकाएं भगवान् तीर्थंकर एवं उनकी माता को पूर्ववत् हाथों में ग्रहण कर जन्म स्थान में ले आती हैं और शय्या पर लिटाती हैं। भगवान् तीर्थंकर को उनकी माता के पार्श्व में सुलाती हैं और मंगल गीतों का आगान-संगान करती हैं। विवेचन - यहाँ शतपाक और सहस्त्रपाक तेल का उल्लेख हुआ है। इस सम्बन्ध में यह ज्ञातव्य है कि दैहिक पुष्टि और मार्दव आदि की दृष्टि से आयुर्वेद में विविध प्रकार के तेलों का प्रयोग बतलाया गया है। यहाँ तक कि तैल चिकित्सा के रूप में विविधरोग विनाशिनी आयुर्वेद मूलक प्रकिया भी रही है। आज भी तमिलनाडु में कोयम्बटूर के समीप तैल चिकित्सा का सुप्रसिद्ध केन्द्र है। - शतपाक और सहस्त्रपाक तेलों का उपासकदशांग आदि आगमों में भी उल्लेख हुआ है। वहाँ भगवान् महावीर के प्रमुख श्रावक आनंद द्वारा मर्दन विधि में इन दोनों को अपवाद स्वरूप रखे जाने का उल्लेख है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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