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________________ १४ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र स्पर्श किए हुए है। वह गंगा महानदी एवं सिंधु महानदी द्वारा तीन भागों में बंटा हुआ है। उसकी चौफाई २३८ ० योजन है। उसकी जीवा उत्तर में पूर्व पश्चिम दिशाओं में लम्बी है तथा दो ओर से वह लवण समुद्र का स्पर्श करती है। वह अपनी पश्चिमी कोटि-किनारे या कोने से पश्चिम लवण समुद्र का स्पर्श करती है एवं पूर्वी कोटि से लवण समुद्र के पूर्वी भाग का स्पर्श करती है। दक्षिणार्द्ध भरतक्षेत्र की जीवा की लम्बाई ६७४८ योजन है। उसका धनुष्यपृष्ठपीठिका - दक्षिणार्द्ध भरत के जीवोपमित भाग का पीछे का हिस्सा दक्षिण में ६७६६ - से कुछ अधिक है। यह वर्णन परिक्षेप - परिधि की अपेक्षा से है। हे भगवन्! दक्षिणार्द्ध भरत आकार या स्वरूप में कैसा है? हे गौतम! उसका भूमिभाग अत्यंत समतल तथा रमणीय है। वह मुरज (ढोलक) के ऊपरी भाग-चर्मपुट जैसा यावत् समतल है, बहुत प्रकार के कृत्रिम-मनुष्यकृत, अकृत्रिम-प्राकृतिक, पाँच रंगयुक्त मणियों और तृणों से सुशोभित है। हे भगवन्! दक्षिणार्द्ध भरत में मनुष्यों का आकार या स्वरूप किस प्रकार का है? हे गौतम! दक्षिणार्द्ध भरत के मनुष्य संहनन, संस्थान, ऊँचेपर्न तथा आयुष्य की दृष्टि से बहुत प्रकार के हैं। वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं। तदुपरांत उनमें से कतिपय नरक, तिर्यंच मनुष्य या देव गति में जाते हैं तथा कतिपय सिद्धत्व, बुद्धत्व, मुक्तत्व एवं परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं एवं समस्त दुःखों का नाश करते हैं। विवेचन - इस सूत्र में भरतक्षेत्र की वैविध्य पूर्ण स्थिति का वर्णन है। उसे जो स्थाणु, कंटकादि बहुल एवं विषम आदि कहा गया है, वह समस्त क्षेत्र के सामान्य वर्णन की अपेक्षा से है। साथ ही साथ उसके रमणीय भूमिभाग का उल्लेख हुआ है, वह स्थान विशेष के दृष्टिकोण को लिए हुए है। शुभ एवं अशुभ स्थितियों की विद्यमानता के कारण एक ही क्षेत्र में द्विविधता का होना असंगत नहीं है। इस सूत्र में दक्षिणार्द्ध भरत के मनुष्यों को नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देवगति में जाने तथा मुक्ति लाभ करने का जो उल्लेख हुआ है, वह भिन्न-भिन्न जीवों को लेते हुए आरक विशेष की अपेक्षा से है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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