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जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
छह भागों में विभक्त है, जो उसके छह खण्ड कहलाते हैं। जंबूद्वीप को १६० भागों में विभक्त करने पर भरत क्षेत्र उसका एक भाग होता है। यों भरत क्षेत्र जंबूद्वीप का १९० वाँ भाग है। इस प्रकार यह ५२६ ६ योजन विस्तीर्ण है।
भरत क्षेत्र के बीचों-बीच वैताढ्य संज्ञक पर्वत कहा गया है। जिससे यह भरत क्षेत्र दो भागों में विभक्त होता है। ये दोनों भाग दक्षिणार्ध तथा उत्तरार्ध भरत के रूप में विश्रुत हैं।
विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त 'किवण' शब्द भाषा शास्त्रीय दृष्टि से अर्थ परिवर्तन का एक विशेष उदाहरण है। इसका संस्कृत रूप कृपण है। “कृपां नयतीति कृपणः" के अनुसार कृपण उसे कहा जाता है, जिसकी दीनावस्था को देखकर मन में दया आ जाए। तदनुसार कृपण का अर्थ दीन या दरिद्र होता है। यहाँ इसी अर्थ में कृपण (किवण) शब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु आज कृपण शब्द का अर्थ दीन या दरिद्र शब्द न होकर कंजूस हो गया है। जो व्यक्ति धन संपन्न होते हुए भी दान में, यहाँ तक की खाने-पीने में भी पैसा नहीं खर्च करता, दूसरे शब्दों में, वित्तीय साधनों की प्रचुरता के बावजूद अभावमय जीवन जीता है, उसे कृपण कहा जाता है। उस पर भी "कृपां नयतीति कृपणः" - यह व्युत्पत्ति घटित हो जाती है, क्योंकि वैसे व्यक्ति को देखकर मन में ग्लानिपूर्ण कृपा का भाव उबुद्ध होता है कि यह कैसा अभागा पुरुष है, जो साधन-सम्पन्न होते हुए भी साधनहीन का जीवन जीता है। यों वह भी लोगों को दयनीय ही प्रतीत होता है।
भाषा शास्त्रीय दृष्टि से परिवर्तित हुए सामाजिक दृष्टिकोण के अनुसार शब्दों का अर्थ भी भिन्न-भिन्न युगों में परिवर्तित होता जाता है। आज किसी दीन-दुःखी को कृपण नहीं कहा जाता। किन्तु यहाँ प्रयुक्त ‘कृपण' शब्द प्राचीनकाल में प्रचलित दयनीय पुरुष का ही द्योतक है, कंजूस का नहीं।
(११) कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे भरहे णामं वासे पण्णत्ते?
गोयमा! वेयड्डस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, दाहिणलवणसमुदस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डभरहे णामं वासे पण्णत्ते-पाईणपडीणायए, उदीण
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