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चतुर्थ वक्षस्कार - महाविदेह : स्वरूप : संज्ञा
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देवे महिहिए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणडेणं गोयमा! एवं वुवइमहाविदेहे वासे २१
अदुत्तरं च णं गोयमा! महाविदेहस्स वासस्स सासए णामधेजे पण्णत्ते जंण कयाइ णासि ३..।
भावार्थ - हे भगवन्! जंबूद्वीप में महाविदेह संज्ञक क्षेत्र किस स्थान पर कहा गया है?
हे गौतम! वह नीलवान् वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर में पूर्वदिग्वर्ती लवण समुद्र के पश्चिम में, पश्चिम लवणसमुद्र के पूर्व में, जंबूद्वीप के अंतर्गत बतलाया गया है। उसकी लम्बाई पूर्व-पश्चिम में तथा चौड़ाई उत्तर-दक्षिण में है। वह आकार में पलंग के समान है। वह दो तरफ से लवण समुद्र का स्पर्श करता है। पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का यावत् पश्चिम किनारे से पश्चिमी लवण समुद्र का स्पर्श करता है यावत् उसका विस्तार ३३६८४० योजन है। पूर्व-पश्चिम में उसकी बाहा ३३७६७० योजन लम्बी है। उसके ठीक मध्य स्थित जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है, दो तरफ से लवण समुद्र को छूती है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वीय लवण समुद्र को यावत् पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवण समुद्र को यावत् इसकी लम्बाई एक लाख योजन है। उत्तर-दक्षिण व्यापी उसका धनु पृष्ठ परिधि की दृष्टि से १५८११३१६ योजन से कुछ अधिक है।
१. पूर्व विदेह २. पश्चिम विदेह ३. देवकुरु तथा ४. उत्तरकुरु - महाविदेह क्षेत्र के ये चार भाग प्रतिपादित हुए हैं। . हे भगवन्! महाविदेह क्षेत्र का आकार-स्वरूप किस प्रकार का है?
हे गौतम! उसका भू भाग अत्यधिक समतल तथा सुंदर है यावत् वह भिन्न-भिन्न प्रकार के कृत्रिम तथा अकृत्रिम रत्नों से शोभायमान है।
- हे भगवन्! महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत मनुष्यों का आकार स्वरूप कैसा प्रतिपादित हुआ है? ... वहाँ के मनुष्य छह प्रकार के संहनन तथा छह प्रकार के संस्थान युक्त होते हैं। वे ऊँचाई में पांच सौ धनुष होते है। इनका आयुष्य-न्यूनतम अन्तर्मुहूर्त परिमित तथा अधिकतम एक पूर्व कोटि परिमित होता है। आयुष्य पूर्ण होने पर उनमें से कतिपय नरकगामी होते हैं यावत् कुछ सिद्धत्व प्राप्त करते हैं यावत् समस्त दुःखों का नाश करते हैं।
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