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________________ चतुर्थ वक्षस्कार - पद्मद्रह २२५ 20-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-00-08-04-12-20-00-00-00-0-0-10-28-06-10-00-00-00-00नेत्राकर्षक हैं, सुखद स्पर्श युक्त एवं शोभायमान हैं। इन पर लगी हुई घंटियों की पंक्तियाँ चलित होने पर-बजने पर अति मधुर शब्द करती हैं, मन को तुष्टि प्रदान करती हैं। इन तोरण द्वारों पर आठ-आठ मंगल प्रतीक बतलाए गए हैं, यथा-स्वास्तिक, श्री वत्स यावत् नेत्रों को प्रिय लगने वाले हैं। इन तोरणों पर काले चंवरों यावत् श्वेत चंवरों की बहुत सी ध्वजाएं शोभायमान हैं। ध्वजाओं के दण्ड वज्ररत्न निर्मित हैं। इनमें रूपहले वस्त्र लगे हैं। ये कमल की उत्तम सुगंध से युक्त है, सुरम्य एवं हृदयाह्लादक हैं। तोरण पर बहुत से छत्र, अतिछत्र, पताका, अतिपताका-पताका पर पताका, घंटाओं के युगल विद्यमान हैं। उन पर उत्पल, पद्म यावत् शत, सहस्रपत्र कमल के समूह स्थित हैं, जो पूर्णतः रत्नमय, उज्ज्वल यावत् प्रतिरूप हैं। ___ उस गंगा प्रताप कुण्ड के बीचों-बीच गंगाद्वीप संज्ञक विशाल द्वीप बतलाया गया है। इसकी आयाम-विस्तार आठ योजन तथा परिधि पच्चीस योजन से कुछ अधिक है। यह जल में दो कोस ऊपर उठा हुआ है, सर्वरत्नमय, उज्ज्वल एवं चिकना है। यह एक पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। इनका विस्तार पूर्ववत् कथनीय है। गंगाद्वीप के ऊपर अत्यंत समतल, एवं रमणीय भूमिभाग बतलाया गया है। इसके ठीक मध्यवर्ती भाग में गंगादेवी का एक विशाल भवन है। यह लम्बाई में एक कोस, चौड़ाई में आधा कोस तथा ऊँचाई में एक कोस से कुछ कम है। यह अनेक खंभों पर सन्निविष्ट-स्थित है यावत् इसके मध्यवर्ती भाग में एक मणिपीठिका है, जिस पर शय्या है। '. यह किस कारण से गंगाद्वीप कहलाता है? यावत् यहाँ गंगादेवी का आवास होने से इसका यह शाश्वत नाम बतलाया गया है। - उस गंगा प्रपात कुण्ड के दक्षिणवर्ती तोरण द्वार से निकलती हुई गंगा महानदी जब उत्तरार्द्ध भरतक्षेत्र की ओर आगे बढ़ती है तब उसमें सात सहस्र नदियाँ आकर गिरती हैं। तदनंतर खण्ड प्रपात गुफा से होते हुए, वैताढ्य पर्वत को विदीर्ण करती हुईं - चीरती हुईं दक्षिणार्द्ध भरत के बीचों बीच से निकलती हुई फिर पूर्व की ओर मुड़ती है। यहाँ चौदह हजार नदियों से संयुक्त होकर बहती हुई यह गंगामहानदी जंबूद्वीप की जगती-प्राचीर को चीरकर पूर्वीय लवण समुद्र में मिल जाती है। ____ गंगा महानदी जहाँ से निकलती है - उद्गम स्थान पर छह कोस से एक योजन अधिक प्रवाह युक्त है। वह आधे कोस की गहराई लिए हुए है। उसके बाद वह महानदी क्रमशः ओर अधिक विस्तार प्राप्त करती जाती है। जब वह समुद्र में मिलती है, तब उसकी चौड़ाई साढे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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