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________________ २०६ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र विजय द्वार के अधिष्ठाता विजय देव के वृत्तांत के अन्तर्गत जो वर्णन आया है, उसी प्रकार यहाँ कथनीय है यावत् वे देव पंडकवन में एकत्रित हुए-परस्पर मिले एवं दक्षिणार्द्ध भरत में स्थित विनीता राजधानी में उपस्थित हुए। राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए अभिषेक मंडप में राजा भरत के पास आए तथा महार्थ, महाघ एवं महार्ह राज्याभिषेक के लिए वांछित समस्त सामग्री को वहाँ उपस्थित किया। तदनंतर बत्तीस सहस्र राजाओं ने शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र एवं मुहूर्त में, उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र में विजयमुहूर्त में स्वाभाविक एवं उत्तर विक्रिया द्वारा निर्मित, उत्तम कमलों पर . प्रतिष्ठापित, सुरभिमय उत्तमजल से भरे हुए यावत् राजा भरत का अत्यधिक समारोह पूर्वक अभिषेक किया। अभिषेक का पूरा वर्णन विजय देव के अभिषेक के समान है। . . अभिषेक के पश्चात् प्रत्येक राजा ने यावत् अंजलिबद्ध होकर प्रीतिमय वाणी द्वारा उसी प्रकार कहा, जिस प्रकार प्रवेश के समय कहा था यावत् आधिपत्य करते हुए सुखपूर्वक विहरणशील रहो, यों कहकर उन्होंने जय-जय शब्दों को प्रयुक्त किया। तत्पश्चात् सेनापति रत्न यावत् पुरोहित रत्न तीन सौ साठ पाचक, अठारह श्रेणी-प्रश्रेणी जनों यावत् सार्थवाह आदि ने राजा भरत का उत्तम कमलपत्रों पर स्थापित कलशों से उसी प्रकार अभिषेक किया यावत् अभिसंस्तवन किया, जिस प्रकार सोलह हजार देवों ने किया। विशेषता यह है - उन्होंने रौएदार सुकोमल वस्त्र द्वारा राजा की देह को पोंछा और उनको मुकुट पहनाया। तदनंतर उन्होंने दर्दर एवं मलयगिरि की सुगंध सदृश गंध वाले चंदन के घोल को राजा के शरीर पर लगाया। दिव्य फूलों की मालाएं पहनाई। अधिक क्या कहा जाए? सूत्रादि से ग्रथित, वेष्टित-वस्तु विशेष पर लपेटी हुई यावत् इन विशिष्ट मालाओं द्वारा अलंकृत किया। इस महान् राज्याभिषेक महोत्सव में अभिसिंचित हो जाने के उपरांत राजा भरत ने अपने कौटुंबिक पुरुषों-कार्य व्यवस्थापकों को बुलाया और कहा - देवानुप्रियो! तुम लोग हाथी पर आरूढ़ होकर विनीता राजधानी के सिंघाटकों, तिराहों, चौराहों, चौकों यावत् बड़े-बड़े राजमार्गों पर जोर-जोर से ऐसा उद्घोषित करो कि मेरे राज्याभिषेक के उपलक्ष में राज्य के निवासी द्वादश वर्ष पर्यन्त प्रमोदोत्सव-आनंदोत्सव मनाते रहें। इस बीच राज्य में खरीद-बिक्री पर कोई शुल्क नहीं लगेगा, संपत्ति आदि पर कर नहीं लिया जाएगा, ऋण आदि की वसूली का तकाजा नहीं किया जाएगा, आदान-प्रदान एवं नाप-जोख का क्रम बंद रखा जाएगा, राज्य कर्मचारी किसी के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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