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तृतीय वक्षस्कार - राजधानी में प्रत्यार्वतन
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णाडएहिं उवलालिजमाणे २ उवणच्चिजमाणे २ उवगिजमाणे २ महया जाव भुंजमाणे विहरइ॥
__ शब्दार्थ - अज्जिय - अर्जित, सूय - पाचक-रसोइए (सूद), हडक्क - मुद्रा पात्र या तांबूल पत्र, सिंहडिणो - शिखंडी-शिखाधारी, कुक्कुइया - कौत्कुचिक-भांड आदि भौंडी चेष्टाएँ करने वाले, सावेंता - सिखलाते हुए, पउंजमाणा - प्रयुक्त करते हुए, संगेल्ली - समुदाय, आसिय - छिड़कना, ओवलियं - लेपन करना, अत्थत्थिया - अर्थार्थी-धन चाहने वाले, वग्गूहिं - वाणी से, आहेवच्चं - आधिपत्य, पोरेवच्चं- पुरोगामिता-नेतृत्व, पिच्छिजमाणेदर्शन कर रहे थे, विच्छिप्पमाणे - व्यक्त कर रहे थे, समइच्छमाणे - देखता हुआ, पडिबुज्झमाणे - आनंद लेता हुआ, पच्चुवेक्खइ - पूछो।
भावार्थ - राजा भरत ने इस प्रकार राज्य अर्जित किया। शत्रुओं को निर्जित-विजित किया। उसके यहाँ समस्त रत्न प्रादुर्भत हुए, जिनमें चक्ररत्न प्रमुख था। राजा भरत को नौ निधियों की प्राप्ति हुई। उसका कोश धन-धान्य से समृद्ध था। बत्तीस सहस्र राजा उसके अनुगामी थे। उसमें साठ हजार वर्षों में समस्त भरत क्षेत्र को स्वाधिकृत किया। तत्पश्चात् राजा भरत ने कौटुंबिक पुरुषों को आहूत किया और आदेश दिया - देवानुप्रियो! शीघ्र ही प्रमुख हस्तिरत्न को तैयार करो। अश्व, रथ, गज एवं पदाति युक्त चतुरंगिणी सेना को सुसज्ज करो यावत् अंजनगिरि की चोटी के समान उन्नत हस्तिराज पर वह सवार हुआ। राजा के हस्तिरत्न पर आरूढ हो जाने पर स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण ये आठ-आठ मंगल प्रतीक यथानुक्रम से उसके आगे-आगे चले।
. तत्पश्चात् जल से भरे हुए मंगल कलश, झारी, दिव्य छत्र, पताका यावत् इन सबको लिए हुए राजपुरुष चले। इसके बाद नीलम की प्रभा से चमचमाता उज्ज्वल दंडयुक्त छत्र यावत् लिए राजपुरुष यथानुक्रम चले। तत्पश्चात् सात एकेन्द्रिय रत्न- चक्र, छत्र, चर्म, दंड, असि, मसि तथा काकणि रत्न क्रमानुसार चले। इनके अनंतर नैसर्प, पांडुक यावत् शंख - ये नौ महानिधियाँ चली। इनके पीछे सोलह हजार देव, बत्तीस हजार उत्तम नृपतिगण, सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्द्धकिरत्न, पुरोहितरत्न तथा स्त्रीरत्न, बत्तीस हजार ऋतु कल्याणिकाएँ - ऋतु के प्रतिकूल स्पर्श युक्त कन्याएँ, बत्तीस सहस्र जनपद कल्याणिकाएँ - अग्रगण्य - ये सब यथानुक्रम से चले।
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