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________________ तृतीय वक्षस्कार - राजधानी में प्रत्यार्वतन १६१ तदनंतर किसी एक दिन वह दिव्य चक्ररत्न आयुधशाला से बाहर निकला। वह एक सहस्र यक्षों से घिरा हुआ दिव्य वाद्य ध्वनि के बीच अंतरिक्ष में स्थित हुआ यावत् ध्वनि निनाद से आकाश को भरता हुआ, सैन्य शिविर के बीचों बीच चला। राजा भरत ने यावत् उसे देखा तो वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ यावत् उसने अपने कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया और कहा - देवानुप्रियो! आभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार करो यावत् मेरे आज्ञानुसार कार्य सम्पन्न होने की सूचना दो। कौटुंबिक पुरुषों ने ऐसा कर राजा को सूचित किया। राजधानी में प्रत्यार्वतन . (८३) - तए णं से भरहे राया अज्जियरज्जो णिजियसत्तू उप्पण्णसमत्तरयणे चच्चरयणप्पहाणे णवणिहिवई समिद्धकोसे बत्तीसरायवरसहस्साणुयायमग्गे सट्ठीए वरिससहस्सेहिं केवलकप्पं भरहं वासं ओअवेइ २ त्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक्कं हत्थिरयणं हयगयरह तहेव जाव अंजणगिरिकूडसण्णिभं गयवई णरवई दुरूढे। __तए णं तस्स भरहस्स रण्णो आभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया, तंजहा - सोत्थिय-सिरिवच्छ जाव दप्पणे, तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगार दिव्वा य छत्तपडागा जाव संपट्ठिया, तयणंतरं च णं वेरुलियभिसंतविमलदंडं जाव अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं, तयणंतरं च णं सत्त एगिदियरयणा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया, तंजहा - चक्करयणे १ छत्तरयणे २ चम्मरयणे ३ दंडरयणे ४ असिरयणे ५ मणिरयणे ६ कागणिरयणे ७, तयणंतरं च णं णव महाणिहिओ पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया, तंजहा - णेसप्पे पंडुयए जाव संखे, तयणंतरं च णं सोलस देवसहस्सा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्टिया, तयणंतरं च णं बत्तीसं रायवरसहस्सा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्टिया, तयणंतरं च णं सेणावइरयणे पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिए, एवं गाहावइरयणे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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