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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ८. माणवक निधि - योद्धा और कवच आदि आवरण, शस्त्रास्त्र, युद्धनीति, दण्डनीति के उद्भव की विशेषता लिए होती है ॥ ८ ॥ गद्य, पद्य, ६. शंखनिधि - सब प्रकार के नृत्य, नाटक, चतुर्विध काव्य गेय एवं चौर्णनिपात एवं अव्यय बहुल रचनायुक्त काव्यों तथा सब प्रकार के वाद्यों को उत्पन्न करने की क्षमता लिए होती है ॥ ६ ॥ १६० इनमें से प्रत्येक निधि आठ-आठ चक्रों पर अवस्थित होती है। इनकी ऊँचाई आठ-आठ योजन, चौड़ाई नौ-नौ योजन तथा लंबाई बारह - बारह योजन परिमित होती है। इनका आकार मंजूषा - पेटिका के सदृश होता है। गंगा जहाँ समुद्र में मिलती है, वहाँ इनका आवास स्थान है। इनके कपाट नीलम रत्नमय होते हैं। वे स्वर्णघटित, विविधरत्न परिपूर्ण होती हैं । उन पर चंद्रमा, सूरज एवं चक्र की आकृति के चिह्न होते हैं. उनकी वदन रचना अपने-अपने स्वरूप के अनुसार होती है ॥१०,११ ॥ निधियों के नामों के समान अधिष्ठातृ देवों की स्थिति एक पल्योपम होती है। इनके आवास अक्रयणीय-अत्यंत मूल्यवान होने के कारण न खरीदे जा सकने योग्य तथा स्वामित्व वर्जित होते हैं - दूसरा इनका स्वामी नहीं बन सकता ॥ १२ ॥ विपुल धनरत्न संचययुक्त ये नौ निधियाँ, भरत क्षेत्र के छहों खण्डों के विजेता चक्रवर्ती राजाओं के वंशगत होती है ॥ १३ ॥ राजा भरत तेले की तपस्या पूर्ण हो जाने पर पौषधशाला से प्रतिनिष्क्रांत होकर स्नानागार में प्रविष्ट हुआ यावत् श्रेणी - प्रश्रेणी जनों को बुलाया यावत् निधिरत्नों को सिद्ध करने के उपलक्ष में अष्टदिवसीय महोत्सव आयोजित करवाया । अष्टाह्निक महोत्सव के परिसंपन्न हो जाने पर राजा भरत ने अपने सेनापति सुषेण को बुलाया और कहा देवानुप्रिय ! गंगामहानदी के पूर्व में विद्यमान, भरत क्षेत्र के कोणवर्ती प्रदेश को, जो गंगा महानदी, समुद्र तथा वैताढ्य पर्वत से मर्यादित, परिसीमित है तथा वहाँ के अवान्तर क्षेत्रीय उबड़-खाबड़ कोणवर्ती प्रदेशों को अधिकृत करो। वैसा कर मुझे सूचित करो । सेनापति सुषेण ने उन पर अधिकार किया । यहाँ का समस्त वर्णन पूर्व वर्णन के अनुसार कथनीय है यावत् राजा को उन पर अधिकार होने की सूचना दी। राजा ने सत्कृत - सम्मानित कर विदा किया यावत् वह भोगोपभोग में अभिरत होता हुआ सुखपूर्वक रहने लगा। Jain Education International - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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