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तृतीय वक्षस्कार - विद्याधरराज नमि विनमि पर विजय
१८३ ---------------------------------14-04--08-10-24-10-04-28-12--10-0-0-- और नाखून बढ़ते नहीं थे। वह स्पर्श से समस्त रोगों का नाश करने वाली, बलवृद्धि करने वाली तथा इच्छानुरूप शीत, उष्ण स्पर्श देने वाली थी। ___ गाथा - वह तीन स्थानों में तनुक्-पतली, तीन स्थानों में लालिमामय, शरीर में तीन सलवटों से युक्त, तीन स्थानों में गंभीर, तीन स्थानों में उन्नत, तीन स्थानों में कृष्ण वर्ण युक्त, तीन स्थानों में श्वेत, तीन स्थानों में प्रलम्ब तथा तीन स्थानों में विस्तीर्ण थी॥१॥. ... ___वह समशरीर युक्त, भरत क्षेत्र की समस्त नारियों में श्रेष्ठ थी। उसके स्तन, जघन, हस्त, पैर, नेत्र, केश, दंत सभी सुंदर थे। ये सभी दर्शकों के लिए चिताह्लादक एवं आकर्षित करने वाले थे। वह श्रृंगार रस की साक्षात् प्रतिमूर्ति थी यावत् लोक व्यवहार में अत्यंत कुशल एवं प्रवीण थी। वह रूप में देवांगनाओं के सौंदर्य का अनुसरण करती थी। वह कल्याणकर, सुखप्रद यौवन में समाविष्ट थी।
विद्याधर राजा नमि ने रत्न, कड़े तथा भुजबंद लिए। उत्तम तेज, तीव्र विद्याधर गति से जहाँ राजा भरत था, वहाँ आए। अंतरिक्ष में अवस्थित वे पंचरंगे वस्त्र पहने हुए थे, जिनमें छोटी-छोटी घंटियाँ-किंकिणियां लगी थीं यावत् उन्होंने राजा भरत को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया एवं बोले - देवानुप्रिय! आपने यावत् भरत क्षेत्र को विजय किया है। हम आपके विजित प्रदेश में हैं, आपके आज्ञानुवर्ती सेवक हैं। देवानुप्रिय! हमारे उपहार स्वीकार करें यावत् यों कहकर विनमि ने स्त्रीरत्न तथा नमि ने रत्नमय आभरण आदि भेंट किए। राजा ने उपहार स्वीकार किए यावत् उन्हें विदा किया। तत्पश्चात् पौषधशाला से निकलकर स्नानागार में प्रविष्ट हुआ। .....फिर भोजन मंडप में आया यावत् नमि-विनमि नामक विद्याधर राजाओं को जीतने के उपलक्ष में अष्टदिवसीय महोत्सव संपन्न किया।
तदनंतर वह दिव्य चक्ररत्न आयुधशाला से बाहर निकला यावत् उत्तरपूर्व-ईशान कोण में गंगादेवी के भवन की ओर प्रयाण हेतु अभिमुख हुआ। यहाँ आगे का सारा वर्णन सिंधु देवी की वक्तव्यता के अनुरूप है यावत् अन्तर इतना है - गंगादेवी ने राजा भरत को उपहार में विभिन्न प्रकार के रत्नों से युक्त एक हजार आठ कलश तथा स्वर्ण एवं विभिन्न मणियों से रचित स्वर्णमय सिंहासन भेंट किए यावत् अष्टाह्निक महोत्सव आयोजित करने तक शेष वर्णन पूर्व की तरह है।
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