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________________ १८२ त वयासी - अभिजिए णं देवाणुप्पिया! जाव अम्हे देवाणुप्पियाणं आणत्तिकिंकरा इतिकट्टु तं पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! अम्हं इमं जाव विणमी इत्थीरयणं णमी रयणाणि समप्पेइ । तए णं से भरहे राया जाव पडिविसज्जेइ २ ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ २ त्ता मज्जणघरं अणुपविसइ २ त्ता.... भोयणमंडवे जाव मिविमीणं विज्जाहरराईणं अट्ठाहियमहामहिमा, तए णं से दिव्वे चक्करयणे आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ जाव उत्तरपुरत्थिमं दिसिं गंगादेवीभवणाभिमुहे पयाए यावि होत्था, सच्चेव सव्वा सिंधुवत्तव्वया जाव णवरं कुंभट्टसहस्सं रयणचित्तं णाणामणि- कणगरयणभत्तिचित्ताणि य दुवे कणगसीहासणाई सेसं तं व जाव महिमत्ति | शब्दार्थ - णियंबे - नितंबे - तलहटी, मइए - मति, चोइय प्रेरित, उप्पण्णें - उत्पन्न हुआ है, उवत्थाणिय - उपस्थित होना, णाऊणं जानकर, तंब - लालिमायुक्त । भावार्थ - राजा भरत ने जब चक्ररत्न को यावत् वैताढ्य पर्वत की उत्तरवर्ती तलहटी की ओर जाते हुए देखा तो वहाँ बारह योजन लम्बी तथा नौ योजन चौड़ी छावनी लगाई यावत् पौषधशाला में प्रविष्ट हुआ यावत् नमि एवं विनमि नामक विद्याधर राजाओं को विजित करने हेतु पौषधशाला में तेले की तपस्या अंगीकार की यावत् वह इन दोनों का मन में ध्यान करता आस्थित हुआ। जब राजा भरत की तेले की तपस्या पूर्ण होने को थी तब नमि एवं विनमि नामक विद्याधर राजाओं को अपनी दिव्य बुद्धि - दिव्यानुभाव जनित ज्ञान द्वारा प्रेरित होकर यह जाना । वे परस्पर मिले एवं कहने लगे - देवानुप्रिय ! जंबूद्वीप के अन्तर्गत, भरत क्षेत्र में भरत नामक चातुरंत चक्रवर्ती राजा पैदा हुआ है। वर्तमान, भूत एवं भविष्यत् काल में हुए विद्याधर राजाओं का यह परंपरानुगत व्यवहार है कि वे चक्रवर्ती राजा के समक्ष उपस्थित होते रहे हैं। इसलिए हमें भी राजा भरत के समक्ष उपस्थित होकर उपहार भेंट करने चाहिए । यों सोचकर विद्याधरराज विनमि ने अपनी दिव्यबुद्धि से प्रेरित होकर चक्रवर्ती राजा भरत को उपहृत करने हेतु सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न को लिया । उसका शरीरमान - दैहिक विस्तार, उन्मान - शरीर का वजन देह की दृष्टि से परिपूर्ण था । वह तेजस्विनी, रूपवती, उत्तम लक्षण युक्त, चिरयौवना थी । उसके बा Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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