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________________ म्बू प्रज्ञप्ति सूत्र अहमंसि पढमराया अहयं भरहाहिवो णरवरिंदो । णत्थि महं पडिसत्तू जियं मए भारहं वासं ॥ २ ॥ इत्नि कट्टु णामगं आउडेड़ णामगं आउडित्ता रहं परावत्तेइ २ त्ता जेणेव विजयखंधावारणिवेसे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ २ ता जाव चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठाहियाए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ पडिणिक्खमइ २ ता जाव दाहिणदिसिं वेयहपव्वयाभिमुहे पयाए यावि होत्था । शब्दार्थ - परावत्तेइ - वापस लौटा, उसहकूडे - ऋषभकूट, कडगंसि मध्य भाग, आउडेइ - आलेखित किया, णिव्वत्ताए - परिसंपन्न होने पर । भावार्थ - तत्पश्चात् राजा भरत ने अश्वों को नियंत्रित किया तथा रथ को मोड़ा। वह जहाँ ऋषभकूट पर्वत था, वहाँ आया और रथ के आगे के भाग से पर्वत का तीन बार संस्पर्श किया। वैसा कर उसने घोड़ों को रोका, रथ को ठहराया। छह तल युक्त, बारह कोनों से युक्त तथा आठ कर्णिका युक्त, सुनार के लौह निर्मित एहरन के आकार युक्त काकणिरत्न का स्पर्श किया। यह अष्ट स्वर्ण प्रमाण था । राजा ने ऋषभकूट पर्वत के मध्य भाग में इस प्रकार नामांकन किया १८० - गाथा इस अवसर्पिणी काल के तृतीय आरक के तीसरे भाग में भरत नामक चक्रवर्ती हुआ हूँ! मैं भरत क्षेत्र का प्रथम राजा हूँ। नरवरेन्द्र हूँ। मेरा कोई प्रतिद्वन्दी नहीं है। मैंने भरत क्षेत्र को विजित कर लिया है ॥१,२ ॥ - Jain Education International पर्वत का इस प्रकार राजा भरत ने अपने नाम एवं परिचय का आलेखन किया और अपने रथ को प्रत्यावर्तित किया - मोड़ा तथा जहाँ अपनी छावनी थी वहाँ बाह्य उपस्थानशाला - सभा भवन में पहुँचा यावत् चुल्लहिमवान् गिरिकुमार देव को जीत लेने के उपलक्ष में अष्टदिवसीय विजय समारोह सम्पन्न हो जाने पर यावत् वह दिव्य चक्ररत्न आयुधशाला से बाहर निकला यावत् दक्षिणदिशा में स्थित वैताढ्य पर्वत की ओर चलने में प्रवृत्त हुआ । * अष्ट स्वर्ण प्रमाण-आठ तोले स्वर्ण के प्रमाण जितना । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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