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तृतीय वक्षस्कार - रत्न चतुष्टय द्वारा सुरक्षा
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गाहा - णवि से खुहा ण विलियं णेव भयं णेव विजए दुक्खं।
भरहाहिवस्स रण्णो खंधावारस्सवि तहेव॥ . शब्दार्थ - अणइवर - अत्यंत सुंदर, अत्थमंत - महत्त्वपूर्ण, मुग्ग - मूंग, अल्लग - अदरक, हलिद्द - हल्दी, लाउय - लौकी, तउस - ककड़ी, आलिंग - बिजौरा, कविट्ठ - कटहल, अंब - आम, अंबिलिय - इमली, णिप्फाइय - पके हुए, खुहा - क्षुधा-भूख, विलियं - दैन्यानुभव। - भावार्थ - तब राजा भरत ने चक्ररत्न को छावनी के ऊपर तान कर मणिरत्न का संस्पर्श किया यावत् उस मणिरत्न को बस्ती प्रदेश शलाकाओं के मध्य स्थापित किया। गाथापति रत्न शिला की तरह स्थित चर्मरत्न चावल, जौ, गेहूँ, मूंग, उड़द, तिल, कुलत्थ-निम्न कोटि का धान्य, षष्ठिक-चावल विशेष, निष्पाप-तण्डुल विशेष, चने, कोद्रव, कुस्तुंभरि, कंगु, वरक, रालक तथा धनिया, हरे पत्तों के साग, अदरक, मूली, हल्दी, लौकी, ककड़ी, तुंबक, बिजौरा, कटहल, आम, इमली आदि समग्र फल एवं शाक आदि पदार्थों को उत्पन्न करने में सकुशल था, समस्त लोगों का विश्वास पात्र था। .. तब उस गाथापतिरत्न ने उसी दिन बोए हुए, पके हुए, भूसा आदि से रहित कर स्वच्छ बनाए हुए सब प्रकार के धान्यों से भरे हुए हजारों घड़े राजा भरत की सेवा में उपस्थापित किए। उस भीषण वर्षा में राजा चर्मरत्न पर आरूढ़ रहा, छत्र रत्न द्वारा आच्छादित रहा तथा मणिरत्न द्वारा किए गए प्रकाश में सात-दिन रात तक सुखपूर्वक रहा।
गांथा - उस समय राजा भरत एवं उसकी सेना ने न तो भूख का अनुभव किया, न उनमें हीनता और भय का संचार हुआ तथा न किसी प्रकार का दुःख ही रहा।
. .. (७७) . तए णं तस्स भरहस्स रण्णो सत्तरत्तंसि परिणममाणंसि इमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था-केस णं भो! अपत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे जाव परिवजिए जे णं ममं इमाए एयाणुरूवाए जाव अभिसमण्णागयाए उप्पिं विजयखंधावारस्स जुगमुसलमुट्ठि जाव वासं वासइ।
तए णं तस्स भरहस्स रण्णो इमेयारूवं अन्भत्थियं चिंतियं पत्थियं मणोगयं
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