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तृतीय वक्षस्कार - तमिस्रागुहा में काकणी रत्न द्वारा मंडल आलेखन
तए णं से भरहे राया छत्तलं दुवालसंसियं अट्ठकण्णियं अहिगरणिसंठियं अट्ठसोवण्णियं कागणिरयणं परामुसइ । तए णं तं चउरंगुलप्पमाणमित्तं अट्ठसुवणं च विसहरणं अउलं चउरंससंठाणसंठियं समतलं माणुम्माणजोगा जओ लोगे चरंति सव्वजणपण्णवगा, ण इव चंदो ण इव तत्थ सूरे ण इव अग्गी ण इव तत्थ मणिणो तिमिरं णार्सेति अंधयारे जत्थ तयं दिव्वं भावजुत्तं दुवालसजोयणाई तस्स साउ विवहंति तिमिरणिगर-पडिसेहियाओ, रत्तिं च सव्वकालं खंधावारे करेइ आलोयं दिवसभूयं जस्स पभावेण चक्कवट्टी, तिमिसगुहं अईइ सेण्णसहिए अभिजेत्तुं बिड़यमद्धभरहं रायवरे कागणिं गहाय तिमिसगुहाए पुरत्थिमिल्लपच्चत्थिमिल्लेसुं कडएसुं जोयणंतरियाई पंचधणुसय- विक्खंभाई जोयणुज्जोयकराई चक्कणेमीसंठियाइं चंदमंडलपडिणिगासाई एगूणपण्णं मंडलाई आलिहमाणे २ अणुप्पविसइ, तए णं सा तिमिसगुहा भरहेणं रण्णा तेहिं जोयणंतरिएहिं जाव जोयणुज्जोय करेहिं एगूणपण्णाए मंडलेहिं आलिहिज्जमाणेहिं २ खिप्पामेव आलोगभूया उज्जयभूया दिवसभूया जाया यावि होत्था ।
शब्दार्थ - तोतं तीक्ष्ण, तंसियं - तिकोना, छलंसं - ऊपर-नीचे षट्कोण युक्त, कुंभीए - मस्तक पर, अईइ प्रविष्ट होता है, तिमिर - अंधकार ।
भावार्थ तदनंतर राजा भरत ने मणिरत्न को परामृष्ट किया, संस्पृष्ट किया। वह रत्न तीक्ष्ण, विशिष्ट आकार युक्त, सुंदर चार अंगुल प्रमाण था । वह अमूल्य था - उसकी कीमत आंकना संभव नहीं था । वह तिकोना था, ऊपर एवं नीचे षट्कोणीय था। अनुपम द्युतियुक्त था, मणिरत्नों में सर्वश्रेष्ठ था । उसे मस्तक पर धारण करने से किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं रह जाता था। यों वह सर्व दुःख निवारक था । सर्वकाल में आरोग्य प्रदायक था। उसके प्रभाव से तिर्यंच, मनुष्य एवं देवकृत उपसर्ग, संकट या विघ्न कभी भी दुःख उत्पन्न नहीं कर सकते थे। जो इस रत्न को धारण करता वह संग्राम में भी किसी रत्न द्वारा वध्य नहीं होता था । उसको धारण करने से चिरयौवनता रहती थी। इसे धारण करने से न बाल बढ़ते तथा न नाखून ही । इसे धारण करने से मनुष्य में किसी भी प्रकार का भय उत्पन्न नहीं होता । .
राजा भरत ने इन असाधारण विशेषताओं से युक्त मणिरत्न को ग्रहण कर अभिषेक्य हस्तिरत्न के मस्तक के दाहिनी ओर बांधा। भरत क्षेत्र के अधिपति राजा भरत के हृदय पर हार
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