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________________ तृतीय वक्षस्कार - वैताढ्य - विजय १४५ वैताढ्य - विजय (६४) तए णं से दिव्वे चक्करयणे सिंधूए देवीए अट्ठाहियाए महामहिमाए णिव्वत्ताए समाणीए आउहघरसालाओ तहेव जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसिं वेयडपव्वयाभिमुहे पयाए यावि होत्था। तए णं से भरहे राया जाव जेणेव वेयद्दपव्वए जेणेव वेयहस्स पव्वयस्स दाहिणिल्ले णियंबे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता वेयडस्स पव्वयस्स दाहिणिल्ले णियंबे दुवालसजोयणायाम णवजोयणविच्छिष्णं वरणगरसरिच्छं विजय-खंधावारणिवेसं करेइ २ ता जाव वेयहगिरिकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ २ ता पोसहसालाए जाव अट्ठमभत्तिए वेयड्डगिरिकुमारं देवं मणसि करेमाणे २ चिट्ठइ, तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि वेयडगिरिकुमारस्स देवस्स आसणं चलइ, एवं सिंधुगमो णेयव्वो पीइदाणं आभिसेक्कं रयणालंकारं कडगाणि य तुडियाणि य वत्थाणि य आभरणाणि य गेण्हइ २ ता ताए उक्किट्ठाए जाव अट्ठाहियं जाव पच्चप्पिणंति। शब्दार्थ - णितंब - पर्वत की तलहटी, आभिसेक्क - धारण करने योग्य। भावार्थ - सिंधुदेवी को विजित करने के उपलक्ष में आयोजित आठ दिवस का महोत्सव परिपूर्ण हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न पहले की तरह आयुधशाला से निकला यावत् उत्तर-पूर्व दिशा भाग में - ईशान कोण में स्थित वैताढ्य पर्वत की ओर चला। - राजा भरत यावत् जहाँ वैताढ्य पर्वत की तलहटी थी, वहाँ आया। वैताढ्य पर्वत की दाहिनी ओर की तलहटी में उत्तम नगर सदृश बारह योजन लंबी और नौ योजन चौड़ी फौज की छावनी लगाई यावत् वैताढ्य कुमार देव को जीतने के उद्देश्य से पौषधशाला में तेले की तपस्या अंगीकार की यावत् तेले की तपस्या में स्थित राजा वैताढ्य गिरिकुमार के संदर्भ में चिंतन करता हुआ स्थित रहा। राजा भरत के तेले की तपस्या पूर्ण होने पर वैताढ्य गिरिकुमार का आसन चलित हुआ। आगे वर्णन सिंधुदेवी के प्रसंग जैसा है। वैताढ्य गिरिकुमार ने राजा भरत द्वारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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