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________________ १४४ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र भावार्थ - प्रभास तीर्थ कुमार को जीत लेने के उपलक्ष में रचे गए आठ दिनों के विशाल समारोह के परिपूर्ण हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न आयुधशाला से प्रतिनिष्क्रांत हुआ यावत् वाद्य ध्वनि के मध्य अंतरिक्ष में अवस्थित हुआ। सिंधु महानदी के दाहिने तट से होता हुआ पूर्व दिशा में विद्यमान सिंधु देवी के भवन की ओर चला।। राजा भरत ने दिव्य चक्ररत्न को सिंधु महानदी के दाहिने तट से होते हुए पूर्व दिशा में स्थित सिंधुदेवी के भवन की ओर गमनशील देखा तो उसके मन में बड़ा ही हर्ष और परितोष हुआ यावत् वह जहाँ सिंधु देवी का भवन था, वहाँ आया। उससे न अधिक दूर और न अधिक निकट थोड़ी दूरी पर बारह योजन लम्बी तथा नौ योजन चौड़ी, उत्तम नगर. के सदृश विजय स्कंधावार-सैन्य छावनी लगवाई यावत् वर्धकिरत्न द्वारा बनाई गई पौषधशाला में ब्रह्मचर्य पूर्वक पौषध स्वीकार करते हुए डाभ का आसन बिछाया। ____ यहाँ उसने सिंधुदेवी को उद्दिष्ट कर - उसे साधने, जीतने हेतु तेले की तपस्या स्वीकार की। राजा भरत के तेले की तपस्या पूर्ण हो जाने पर सिंधुदेवी का आसन चलित हुआ। सिंधुदेवी ने जब अपने आसन को चलायमान देखा तो उसने अवधिज्ञान को प्रयुक्त किया। उस द्वारा उसने राजा भरत को तपस्यारत जाना। देवी के मन में ऐसा मनोगत संकल्प, मानसिक उद्वेलन, चिंतन, विचार उत्पन्न हुआ - जंबूद्वीप के अन्तर्गत भरत संज्ञक, चातुरंत चक्रवर्ती का प्रादुर्भाव हुआ है। भूत, वर्तमान और भविष्य - तीनों ही कालों की सिंधु देवियों के लिए यह परंपरानुगत, समुचित एवं व्यवहारानुमोदित है कि वे चक्रवर्ती राजा को उपहार भेंट करें। इसलिए में भी जाकर उसे उपहार अर्पित करूं। ऐसा विचार कर देवी आंठ हजार रत्नांचित कंबल, विविधमणि, स्वर्ण, रत्न द्वारा चित्रित दो स्वर्णनिर्मित श्रेष्ठ आसन, कड़े, भुजबंद, यावत् अन्यान्य आभूषण लेकर - तेजगति से यावत् राजा के पास आई और बोली - देवानुप्रिय! आपने भरत क्षेत्र को जीत लिया है। मैं आपके राज्य में बसने वाली, आपकी आदेशानुवर्तिनी सेविका हूँ। देवानुप्रिय! मेरे द्वारा उपहृत आठ हजार रत्न कंबल, भिन्न-भिन्न प्रकार की मणियों तथा स्वर्ण को स्वीकार करो यावत् यहाँ पूर्व पाठ ग्राह्य है यावत् राजा भरत ने भेंट स्वीकार कर देवी को बिदा किया। वैसा कर राजा पौषधशाला से प्रतिनिष्क्रांत हुआ, स्नानघर में आया, नित्य-नैमित्तिक बलि-पूजा आदि मांगलिक कृत्य (कृत बलिकर्म) किए यावत् भोजन मंडप में आया। सुखासन में स्थित हुआ तथा उसने तेले की तपस्या का पारणा किया यावत् बाह्य उपस्थान शाला में आया, पूर्वाभिमुख होकर उत्तम सिंहासन पर समासीन हुआ। अठारह श्रेणी-प्रश्रेणी के लोगों को बुलाया यावत् अष्टदिवसीय महोत्सव की संपन्नता पर इन्होंने राजा को ज्ञापित किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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