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________________ तृतीय वक्षस्कार - चक्ररत्न का उद्भव एवं उत्सव ११७ *4-0-00-00-00-00-00-00-0-0-8-10-19-19-19-19-0-0-0-0-9-10-08-*-*-*-*-*---*-00-00-12-02-08-122-00-00-12-12 पाउआओ ओमुअइ २ त्ता एगसाडि उत्तरासंगं करेइ २ त्ता अंजलिमउलिअग्गहत्थे चक्करयणाभिमुहे सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ २ त्ता वामं जाणुं अंचेइ २ ता दाहिणं जाणु धरणितलंसि णिहट्ट करयल० जाव अंजलिं कट्ट चक्करयणस्स पणामं करेइ २ त्ता तस्स आउहघरियस्स अहामालियं मउडवजं ओमो दलइ दलइत्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइ दलइत्ता सकारेइ सम्माणेइ सम्माणेइत्ता पडिविसजेइ, पडिविसज्जेइत्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे।।। भावार्थ - किसी समय राजा भरत की आयुधशाला-शस्त्रागार में दिव्य चक्ररत्न समुत्पन्न हुआ। उसे देखकर आयुधशाला. का अधिकारी बहुत ही परितुष्ट, आनंदित, प्रसन्न हुआ। अत्यंत सौम्य मानसिक भाव और हर्षातिरेक से उसका हृदय खिल उठा। जहाँ दिव्य चक्ररत्न था, वहाँ आया। चक्ररत्न की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की। हाथ जोड़कर, उन्हें मस्तक के चारों ओर घुमाते हुए यावत् चक्ररत्न को प्रणाम किया। वैसा कर शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहरी राजसभागार में आया। हाथ जोड़कर, मस्तक के चारों ओर हाथों को घुमाते हुए यावत् राजा को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया। इस प्रकार बोला - देवानुप्रिय की - आपश्री की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है। आपकी प्रसन्नता हेतु यह हर्षोत्पादक संवाद आपको मैं निवेदित करता हूँ। आपके लिए यह शुभ हो। राजा भरत शस्त्रागार के अधिकारी से यह सुनकर हर्षित हुआ यावत् अत्यंत सौमनस्य और हर्ष के कारण उसका हृदय खिल उठा। उसके प्रशस्त, कमल सदृश नेत्र विकसित हो उठे। उसके हाथों में पहने हुए कड़े, त्रुटित-आभरण विशेष, केयूर-बाजूबंद, मुकुट, कानों के कुण्डल हिल उठे। अत्यंत हर्ष से हिलते हुए हार से उसका वक्षस्थल बहुत ही सुंदर लगने लगा। __ लंबे लटकते आभूषणों को धारण किए हुए राजा एकाएक अत्यंत तेजी से, चपलता से अपने सिंहासन से उठा। पादपीठ पर अपना पैर रखा, नीचे उतरा। नीचे उतर कर पादरक्षिकाएँ उतारी। वस्त्र का उत्तरासंग किया। हाथों को अंजलिबद्ध करते हुए यावत् चक्ररत्न को प्रणाम किया। वैसा कर शस्त्रागार के अधिकारी को अपने मुकुट के अतिरिक्त समस्त आभूषण पुरस्कार स्वरूप दे दिए। जीवन पर्यन्त के लिए भरणपोषणोपयोगी आजीविका की व्यवस्था बांधी। उसका सत्कार सम्मान कर वहाँ से विदा किया। तदनंतर राजा पूर्व की ओर मुख कर सिंहासनासीन हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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